Asli Ahle Sunnat Kaun Part 01 : आप मुहम्मदी क्यों कहलाते हैं?, असली अहले सुन्नत कौऩ?


Asli Ahle Sunnat Kaun Part 01 : ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले (Ahle Sunnat) सुन्नत कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैं

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘‘ह’’ से मुराद हनफी है और ‘‘म’’ से मुराद मुहम्मदी है।  

ह – अस्सलामु अलैकुम।

म – व अलैकु मस्सलाम व रहमतुल्लाह व ब रकातुहू, कहिए कहां से तश्रीफ लाए?

ह – यहीं शहर से।

म – आप बहावलपुर में रहते हैं?

ह – जी हाँ।

म – पहले कभी देखा तो नहीं।

ह – मैं पहले कभी आपकी मस्जिद में नहीं आया।

म – फिर आज कैसे तश्रीफ ले आये?

ह – अहले हदीसों को देखने के लिए।

म – अहले हदीसों को देखने के लिए, क्या मतलब?

ह – सुना है ये एक नया ही फिरक़ा निकला है जो ना सहाबा (रजिअल्लाहु अन्हुम) को मानते हैं ना इमामों को बल्कि बुज़ुर्गों को भी गालियां देते हैं।

म – भई! ये सब यारों का प्रोपेगण्डा है वरना दयानतदारी की बात ये है कि हम न किसी को बुरा कहते हैं न गाली देते हैं बल्कि इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त करते हैं और मानने वालों को मानते हैं।

ह – आप इमामों को मानते हैं?

म – क्यों नहीं!

ह – लोग तो कहते हैं आप इमामों को नहीं मानते।

म – ईसाई भी तो कहते हैं कि मुसलमान ईसा अलैहिस्सलाम को नहीं मानते। तो क्या आप ईसा अलैहिस्सलाम को मानते हैं?

ह – हम तो ईसा अलैहिस्सलाम को मानते हैं।

म – फिर ईसाई क्यों कहते हैं कि आप ईसा अलैहिस्सलाम को नहीं मानते।

ह – इस लिए कि जैसे वो मानते हैं वैसे हम नहीं मानते।

म – इसी तरह से लोग हमें कहते हैं क्योंकि जैसे वो इमामों को मानते हैं वैसे हम नहीं मानते।

ह – वो इमामों को कैसे मानते हैं?

म – नबियों की तरह।

ह – नबियों की तरह कैसे?

म – उनकी पैरवी करते हैं उनके नाम पर फिरक़े बनाते हैं, हालांकि पैरवी और इन्तिसाब सिर्फ नबी का हक़ है। किस क़दर अफसोस की बात है कि ईसाई और मिर्ज़ाई जो काफिर हैं वो तो अपनी निसबत अपने नबी की तरफ करके ईसाई और मुहम्मदी कहलाऐं और आप मुसलमान होते हुए अपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को छोड़कर अपनी निसबत इमाम की तरफ करें और हनफी कहलाऐं, क्या वो अक़्लमंद नहीं जो कम अज़ कम अपनी निसबत तो अपनी नबी की तरफ करते हैं।

ह – आप जो हनफी नहीं कहलाते तो क्या इमाम अबू हनीफा (रहमतुल्लाह अलैह) को नहीं मानते?

म – अगर हम हनफी नहीं कहलाते तो इसके ये मायने तो नहीं कि हम उनको नहीं मानते। हम उनको इमाम मानते हैं लेकिन नबी नहीं मानते कि आपकी तरह उनके नाम पर हनफी कहलाऐं। आप ही बताऐं आप जो शाफई (रहमतुल्लाह अलैह) नहीं कहलाते तो क्या इमाम शाफई (रहमतुल्लाह अलैह) को नहीं मानते?

ह – हम इमाम शाफई (रहमतुल्लाह अलैह) को ज़रूर मानते हैं लेकिन जब हनफी कहलाते हैं तो फिर शाफई कहलाने की क्या ज़रूरत है?

म – हमें भी मुहम्मदी या अहले हदीस कहलाने के बाद हनफी कहलाने की क्या ज़रूरत है?

ह – आप मुहम्मदी क्यों कहलाते हैं?

म – आप अपने इमाम के नाम पर हनफी कहलाऐं हम अपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के नाम पर मुहम्मदी ना कहलाऐं! आप ही बतायें, नबी बड़ा या इमाम, मुहम्मदी निसबत अच्छी या हनफी?

ह – निसबत तो मुहम्मदी बेहतर है, लेकिन हनफी ग़लत तो नहीं।

म – ग़लत क्यों नहीं? असली बाप होते हुए फिर किसी और की तरफ मनसूब होना किस शरीअत का मसअला है? जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे रूहानी बाप हैं तो बाप को छोड़ कर किसी और की तरफ निसबत करने के मायने क्या हैं कि वो अपने बाप को नहीं या वो ग़लतकार है जो अपने आप को ग़ैर की तरफ मनसूब करता है। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया – जो अपने बाप से निसबत तोड़ता है वो कुफ्र करता है। (मिश्कात) और दूसरी हदीस में फरमाया – जो अपनी निसबत ग़ैर बाप की तरफ करता है उस पर जन्नत हराम है। जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हमारे दीनी बाप हैं तो उनको छोड़कर ग़ैर की तरफ निसबत करना बे-दीनी नहीं तो और क्या है। आप ये बतायें कि: हनफी बनने के लिए कहा किसने है, क्या अल्लाह ने कहा है या उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने या ख़ुद इमाम ने?

ह – कहा तो किसी ने नहीं।

म – जब हनफी बनने के लिए किसी ने नहीं कहा, और हनफियत इस्लाम की कोई क़िस्म नहीं, हनफियत नाम की इस्लाम में कोई दावत नहीं, तो हनफी निसबत ग़लत क्यों नहीं।

ह – हनफी कहलाने वाले जितने पहले गुज़रे हैं क्या वो सब ग़लत थे?

म – पहले हनफी आज-कल जैसे ना थे, उनकी निसबत शागिर्दी की निसबत थी, मज़हबी ना थी। ये निसबत गुमराही उस वक़्त बनती है जब मज़हबी हो और फिर्क़ा परस्ती की बुनियाद पर हो, अगर ये निसबत उस्तादी व शागिर्दी की हो तो कोई हरज नहीं।

ह – अगर हनफी कहलाना सही नहीं क्योंकि फिर्क़ा परस्ती है तो अहले हदीस कहलाना भी तो फिर्क़ा परस्ती है।

म – फिर्क़ा परस्ती तो तब हो जब हदीस ग़ैर की हो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की न हो, जब हदीस कहते हैं अल्लाह और रसूल की बात को तो अहले हदीस बनना फिर्क़ा परस्ती कैसे। लिहाज़ा अहले हदीस कोई फिर्क़ा नहीं, अहले हदीस तो ऐन-ए-इस्लाम है, इस्लाम नाम ही नबी की पैरवी का और नबी की पैरवी उसकी हदीस पर अमल करने से ही हो सकती है, लिहाज़ा अहले हदीस बने बग़ैर तो चारा नहीं।

ह – आज जो अहले हदीस बनते हैं तो क्या अल्लाह और उसके रसूल ने अहले हदीस बनने के लिए कहा है?

म – अगर अहले हदीस बनने के लिए नहीं कहा तो क्या अहले सुन्नत बनने के लिए कहा है? जो आप अहले सुन्नत कहलाते हैं?

ह – क्या क़ुरआन व हदीस में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैरवी का हुक्म नहीं है?

म – पैरवी का हुक्म तो है लेकिन अहले सुन्नत बनने का हुक्म तो नहीं?

ह – पैरवी आखि़र सुन्नत ही की होगी और वो अहले सुन्नत बनकर ही हो सकती है।

म – लेकिन ये पता कैसे लगेगा कि ये रसूल-ए-सुन्न्त है?

ह – पता तो हदीस से ही लगेगा।

म – फिर अहले हदीस बने बग़ैर कोई अहले सुन्नत कैसे हो सकता है, जैसे सुन्नत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बग़ैर इस्लाम का पता नहीं लग सकता ऐसे ही हदीस के बग़ैर सुन्नत का पता नहीं लग सकता इसी लिए तो हम लोग अमलन अहले सुन्नत हैं और मज़हबन अहले हदीस, अगर हम अहले हदीस ना होते तो आप जैसे अहले सुन्नत होते कि नाम अहले सुन्नत का और काम अहले बिदअत का, इसके बरअक्स नहदनाम ज़ंगी काफूर, अब आप देखें आप अपने आपको अहले सुन्नत कहते हैं लेकिन तक़लीद इमामों की करते हैं। कहते अपने आपको अहले सुन्नत हैं और करते ईद मीलाद हैं, कहते अपने आपको अहले सुन्नत हैं पढ़ते मौलूद हैं खाते ख़त्म और ग्यारहवियां हैं इसी तरह से क़लशुल तीजा, चालीसवां, बहुत सी ऐसी बिदआत हैं जो आप करते हैं हालांकि वो हदीसे रसूल से बिल्कुल साबित नहीं।  

वस्सलामु अलइकुम व रह म तुल्लाहि व ब र कातुहू!

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