Guidelines for Speech and Quran Recitation: तक़रीर और तिलावत में गाने की शैली से दूरी और आवाज में मिठास पैदा करने का हुक्म

 

**बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम**

पैग़ंबर मुहम्मद (ﷺ) ने फरमाया: "اقرؤوا القرآن ‌بلحون ‌العرب وأصواتها وإياكم ولحون أهل العشق ولحون أهل الكتابين"

(क़ुरआन को अरबी के लहजे और आवाज़ में पढ़ो और गानों की शैली या यहूद-नासारा के लहजे से बचो।)

(लेखक- शकील अहमद अब्दुल हई)

तक़रीर और तिलावत में ऐसा तरन्नुम जो गाने का तरीक़ा और रूप अपना ले, वह चाहे तक़रीर हो, शेर-ओ-शायरी या क़ुरआन मजीद की तिलावत हो, ममनू और हराम है। लेकिन अगर क़ारी, मुक़र्रिर और शायर की आवाज़ तसन्नुअत और बनावट से दूर अपने असली स्वर के बहाव में मिठास पैदा करती है, तो यह चीज़ शरीअत में मक़्सूद है। क़ुरआन मजीद की तिलावत के वक़्त लह्न और तरतील का ख़्याल रखना, हर अल्फ़ाज़ को उसका हक़ देना, जिससे दिलों में बलीग़ असर पैदा हो, शरइ तौर पर मक़्सूद है। अपनी आवाज़ में ख़ूबसूरती पैदा करना, जो ममनूअत की हद को पार न करे, बल्कि हुस्न-ए-स्वर पैदा हो, खुशूअ और ख़ुजूअ, तदब्बुर-फ़िल-क़ुरआन, रग़बत-ए-समाअत और हुस्न-ए-फहम के इसबाब में से है।


क़ुरआन को ऐसी आवाज़ में पढ़ना, जिससे दिलों में लज़त और चाशनी महसूस हो (ग़ैर-मसनूई तिलावत और तर्ज़-ए-ग़िना से दूर), समाअत और तिलावत, अफ़हाम और तफहीम और तदब्बुर की तरफ़ रग़बत पैदा हो, शरइ तौर पर जायज़ है। इसी लिए नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
रवाहु अहमद, अबू दाऊद, अल-नसाई, इब्न माजह, और दारमी, सही सनद के साथ इमाम बराअ बिन आजिब से रिवायत है कि नबी ﷺ ने फरमायाः

 ‘‘-زيِّنوا القرآنَ بأصواتكم بالقرآن’’
क़ुरआन मजीद की तिलावत के वक़्त अपनी आवाज़ में हुस्न और मिठास पैदा करो।

क़ुरआन करीम की ऐसी क़िराअत व तिलावत, जिससे क़ुरआन सुनने की रग़बत पैदा हो, सुनने और सुनाने वालों के दिल नरम और मुलायम हों, दिलों में तृप्ति और मिठास महसूस हो, शरइ तौर पर मक़्सूद है। जैसा कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीस हैः

‘‘قد مر النبي ﷺ ذات ليلة على أبي موسى الأشعري وهو يقرأ، وكان الأشعريون ذوو صوت حسن بالقرآن  فلما مر النبي ﷺ على أبي موسى وهو يقرأ؛ سمع له، فقال عند ذلك: لقد أوتي هذا مزمارًا من مزامير آل داود فلما أصبح، وجاء أبو موسى أخبره النبي بذلك، قال: يا رسول الله لو علمت أنك تسمع لحبرته لك تحبيرًا. 

यह हदीस इस बात पर दलील है कि क़ुरआन को खूबसूरत आवाज़ में पढ़ना बेहद पसंदीदा अमल है। नबी करीम ﷺ अपने सहाबा को और मुसलमानों को क़ुरआन को अच्छी आवाज़ में पढ़ने की तर्गीब देते थे। अच्छी आवाज़ का मतलब यह है कि तिलावत का अंदाज़ ऐेसा हो कि हर्फ़ वाज़ेह और अपने मखरज से अदा हों, बेजा और बे-मौका खींचतान न हो ताकि क़ुरआन साफ़ और वाज़ेह सुनाई दे। (मुतफक्क़ अलैहि)

अच्छी आवाज़ में तिलावत का मतलब यह भी है कि आवाज़ में खूबसूरती और नग़मगी हो, लेकिन यह नग़मगी ऐसी हो जो दिल को क़ुरआन की तरफ़ माइल करे, ख़शीअत, ख़ुजूअ और तफक्कुर पैदा करे। इसका मतलब यह नहीं है कि आवाज़ को गाने के अंदाज़ में या लहू व लअब के तौर पर इस्तेमाल किया जाए।

शरीअत का हुक्म है कि क़ुरआन मजीद को अच्छी आवाज़ और हुस्न-ए-स्वर के साथ पढ़ा जाए, लेकिन गाने का तरीक़ा अपनाया न जाए, न रोने वाली आवाज़ बनायी जाए, न पादरियों और विलाप करने वालों की आवाज़ में उसकी तिलावत की जाए।

सही बुख़ारी वग़ैरह में है कि आप ﷺ ने फरमायाः
فقد جاء في صحيح البخاري، وغيره أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: ليس منا من لم يتغن بالقرآن. أي: يحسن به صوته،  صحیح بخاری 

यहाँ ‘‘तगन्नी’’ से मुराद क़ुरआन मजीद को गाने के अंदाज़ में पढ़ना नहीं है, बल्कि हुस्न-ए-स्वर अपनाना है, जैसे अरबी लोग बेहतरीन आवाज़ में तरतील के साथ क़ुरआन मजीद की तिलावत करते हैं। और हमें भी अरबी लोगों के तरीक़े पर क़ुरआन मजीद को पढ़ने का हुक्म दिया गया है। और यहाँ ‘‘तगन्नी’’ से दूसरा मतलब बे-नियाज़ी भी है, यानी जब इंसान को किसी भी मसले में अल्लाह और उसके रसूल का फ़रमान मिल जाए, तो उसे दुनिया के सारे फ़रमानों और हुक्मों से बे-नियाज़ हो जाना चाहिए। सही बुख़ारी।

जब इंसान तिलावत और तक़रीर करे या हम्द और नात पढ़े, तो अपनी आवाज़ में नग़मगी पैदा करे, लेकिन आवाज़ इतनी भी न हो कि वह भोंड़ा लगे और सुनने पर नाक़ाबिल-ए-बरदाश्त हो, बल्कि वह आवाज़ और हुस्न-ए-स्वर अपनी असली आवाज़ के बहाव में होना चाहिए, ग़ायकों का तरीक़ा अपनाने से बचना चाहिए, इसी में भलाई और बरकत है।

रसूलुल्लाह ﷺ ने जिस आवाज़ और तरीक़े से क़ुरआन मजीद को पढ़ने से मना किया है, वह मिश्कात शरीफ की यह हदीस है, जो इस पर दलालत करती हैः
‘‘हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ी अल्लाहु अन्हु ने कहाः रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमायाः 

وعن حذيفة قالः قال رسول الله صلى الله عليه وسلمः ‘‘اقرؤوا القرآن ‌بلحون ‌العرب وأصواتها وإياكم ولحون أهل العشق ولحون أهل الكتابين وسيجي بعدي قوم يرجعون بالقرآن ترجع الغناء والنوح لا يجاوز حناجرهم مفتونه قلوبهم وقلوب الذين يعجبهم شأنهم. رواه  البيهقي في شعب.

क़ुरआन मजीद को अरबों के लहजे और आवाज़ में पढ़ो (यानि तरन्नुम पैदा करने के लिए बहुत ज़्यादा तकल्लुफ़ न करो), और अहल-ए-किताब और फसाक की आवाज़ों और लहज़ों से अपने आपको बचाओ। मेरे बाद जल्द ही ऐसे लोग आएँगे जो क़ुरआन को गाने, पादरियों, और रोने वाली आवाज़ों की तरह पढ़ेंगे, क़ुरआन उनके हलक़ से नीचे नहीं उतरेगा, उनके दिल फितना ग्रस्त होंगे, और उन लोगों के दिल भी फितने में मुबतला होंगे जो इन (क़ारियों) की तिलावत को अच्छा समझेंगे। इसे ‘‘अल-बयहक़ी ने अपनी किताब फज़ाइल-ए-क़ुरआन में रिवायत किया है, बाब-ए-आदाब-ए-तिलावत व दुरूस-ए-क़ुरआन में।’’

तक़रीर व खि़ताब एक प्रभावशाली ज़रिया है लोगों तक दीन के पैग़ाम पहुँचाने और लोगों के ज़ेहन और दिलों को मुख़ातब करने का। इसमें कई पहलू होते हैं, जिन्हें अलग-अलग मौक़ों और समाअत करने वालों के हिसाब से अपनाया जा सकता है। इंजार (डराना) और तश्बीर (खुशख़बरी देना) इन दोनों का ज़िक्र क़ुरआन और सुन्नत में भी मिलता है, और ये तक़रीर के अहम पहलू हैं। इन पहलुओं को अपनाने का अंदाज़ और संतुलन हालत और समाअत करने वालों की ज़रूरत के मुताबिक़ होना चाहिए।

तक़रीर व खि़ताबत में भी गाने का तरीक़ा अपनाना हर हाल में मायूब है। सलफे सालेहीन के यहाँ यह बिदअत के ज़ुमरे में आता है, जैसा कि बहुत से उलमाए सलफ़ व ख़लफ़ के फतवों में पाया जाता है। लेकिन असर-अंगीज़ी के लिए आवाज़ में नग़मगी और मिठास हर हाल में जायज़ और सही है, जैसा कि ऊपर जिक्र की गई हदीसों में आपने पढ़ा।

इस बाब में नबी करीम ﷺ की खि़ताबत का तरीक़ा आदर्श और जामअ था। आप ﷺ के खुतबे में सादगी, असर-अंगीज़ी, दलील की ताक़त, और समाअत करने वालों की मानसिक और दिली हालत के मुताबिक़ हिकमत-ए-अमली शामिल होती थी। आप ﷺ का अंदाज़ निहायत प्रभावशाली और नग़मगी से मुक्त था, जो समाअत करने वालों के दिलों पर गहरा असर डालने वाला था।

आप ﷺ की आवाज़ में प्राकृतिक आकर्षण और असर था। खुतबे के दौरान आपकी आवाज़ का अंदाज़ और तीव्रता समाअत करने वालों की हालत के मुताबिक़ होती, कभी नरम और मोहब्बत भरी गुफ़्तगू, कभी जोश और उलूल, खास तौर पर जंग या ख़तरे के वक़्त। सहाबा-ए-किराम बयान करते हैंः ‘‘जब आप ﷺ खुतबा देते तो आपकी आँखें लाल हो जातीं, आवाज़ ऊँची हो जाती, और आपका जोश महसूस होता, जैसे आप दुश्मन के खिलाफ़ लश्कर की खबर दे रहे हों।’’ (सही मुस्लिम, हदीस 867)

अल्लाह तआला ने क़ुरआन-ए-हकीम को खुशूअ और ख़ुजूअ के साथ पढ़ने का हुक्म दिया है। क़ुरआन मजीद में इरशाद हैः

وَرَتِّلِ الْقُرْآنَ تَرْتِيلًا 
(सूरा अल-मुज़म्मिलः 4)
‘‘और क़ुरआन को ठहर-ठहर कर पढ़ो।’’

इससे मुराद यह है कि क़ुरआन को ख़ूबसूरती और तदब्बुर के साथ पढ़ा जाए ताकि मायनी और मफ़हूम पर गौर किया जा सके।

क़ुरआन मजीद की तिलावत खूबसूरत आवाज़ और उचित तरन्नुम के साथ की जा सकती है, बशर्ते वह क़वाइद और ज़वाबित के मुताबिक़ हो और उसमें अतिक्रमण या गैर-शरीय तरीका न हो। हदीस मुबारक में इर्शाद हैः

زَيِّنُوا الْقُرْآنَ بِأَصْوَاتِكُمْ 
(सही बुख़ारीः 5023)

‘‘क़ुरआन को अपनी आवाज़ों के साथ खूबसूरत बनाओ।’’ ‘‘लहन’’का मतलब है ख़ुश-आवाज़ी के साथ पढ़ना, लेकिन इसमें दो बातों का ख्याल रखना ज़रूरी हैः

जायज़ तरन्नुमः जो क़वाइद-ए-तजवीद के मुताबिक़ हो और क़ुरआन के अल्फाज़ या मायनी में तबदीली न करे।
नाजायज़ तरन्नुमः ऐेसा तरन्नुम जो गाने के अंदाज़ में हो या जिसमें क़ुरआन के अल्फाज़ और मायनी में बिगाड़ कर दिए जाएं, शरीअत में मना है।

हदीस मुबारक है किः ‘‘क़ुरआन को गाने की तरह मत पढ़ो।’’ (बयहकी, शुअब-उल-ईमान)

क़ुरआन की तिलावत का असल मकसद खुशूअ, ख़ुजूअ, और अल्लाह की कु़र्बत हासिल करना है। ऐसा तरन्नुम और नग़मगी जो तिलावत की रूह को खराब करे, गाने के अंदाज़ और धूम हो या समाअत करने वालों को गुमराह करे, नाजायज़ है।

जैसा कि इमाम नववी रहिमाहुल्लाह फरमाते हैंः ‘‘क़ुरआन को ख़ुश-आवाज़ी के साथ पढ़ना मुस्तहब है, लेकिन गाने के अंदाज़ में पढ़ना हराम है।’’

ख़ुलासा-ए-कलाम यह है कि क़ुरआन को खूबसूरत आवाज़ और तरतील के साथ पढ़ना, जो तजवीद के उसूलों के मुताबिक़ हो, तरन्नुम और गाने या संगीत से पाक हो, जायज़ और सही है और मस्तहस्सन है।
अल्लाह हमें क़ुरआन मजीद की तिलावत और उसके पढ़ने के आदाब को समझने और अमल करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए। आमीन।

اللہم ارنا الحق حقا وارزقنا اتباعہ وارنا الباطل باطلا وارزقنا اجتنابہ آمین ثمہ آمین یارب العالمین ۔

Translate in Hindi By: Shahabuddin Ansari Etawi (Al Islam Foundation - AIF Trust of India)


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