Ziaurrehman Aazmi : बांकेराम से प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी : Bankeram



बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम : बांकेराम (Bankeram) से प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Professor Dr. Ziaurrehman Aazmi) : मेरे अज़ीज़ दोस्तो, अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू!  अल-इस्लाम फाउण्डेशन – AIF TRUST की जानिब से आप सभी हज़रात को ईदुल अज़्हा की तहे दिल से मुबारकबाद!    “तक़ब्बल्लाहु मिन्ना व मिनकुम”, उम्मीद करता हूँ कि आप सभी हज़रात बख़ैर होंगे। दोस्तो ये लेख एक ऐसी शख़्सियत के बारे में है जो कुफ्र व शिर्क के दलदल से निकलकर ईमान की दौलत से मालामाल ही नहीं बल्कि हक़ीक़ी फलाह और कामयाबी समेटने में मसरूफ हो गये। चुनांचे आप हज़रात से ज़रूरी गुज़ारिश है कि इस लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, अगर लेख पसन्द आये तो लाईक, कमेंट और शेयर ज़रूर करें।

तहरीर: डाॅक्टर लुब्ना ज़हीर

बांकेराम (Bankeram) से प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Professor Dr. Ziaurrehman Aazmi)

        ये 2005 का ज़माना था। रोज़ाना नवा-ए-वक़्त में मारूफ कालम निगार (स्तंभकार) इरफान सिद्दीक़ी साहब का एक कालम ब-उनवान ‘‘गंगा से ज़म-ज़म तक’’ शाया हुआ। कालम में उन्होंने भारत के एक कट्टर हिन्दू नौजवान का तज़किरा किया था। इस्लामी तालीमात से मुतासिर होकर जिस ने इस्लाम क़ुबूल किया। नौजवान पर इस क़दर एहसान-ए-इलाही हुआ कि वह दिल व जान से इस्लामी तालीमात की जानिब राग़िब हो गया। मदीना मुनव्वरा और मिस्र की इस्लामिक यूनीवर्सिटीज़ से तालीम हासिल करने के बाद शोबा-ए-तदरीस (शिक्षा विभाग) से मुन्सलिक हुआ।

सऊदी अरब की मदीना यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर और डीन के ओहदे तक जा पहुँचा। रिटायर्मेंट के बाद तहक़ीक़ात-ए-इस्लामी में जुत गया। अरबी और हिन्दी में दर्जनों किताबें लिख डालीं। इन किताबों का तर्जुमा दुनिया के मुख़्तलिफ मुमालिक के दीनी मदारिस के निसाब का हिस्सा हैं। इस क़दर बा सआदत ठहरा कि मस्जिद-ए-नब्वी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) में हदीस का दर्स देने लगा। कुुफ्र के अंधेरों से निकल कर इस्लाम के रोशन रास्तों पर गामज़न होने वाले Bankeramप्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) के सफर-ए-सआदत के बारे में लिखा गया ये कालम मेरी याद्दाश्त से भी महू नहीं हो सका। 

इस मर्तबा उमरा पर जाते वक़्त मैंने हज व उमरा की दुआओं और इस्लामी तारीख़ से मुतालिक़ कुछ किताबें अपने सामान में रख ली थीं। एक किताब जो आखि़री वक़्त पर मैंने अपने हमराह ली वो इरफान सिद्दीक़ी साहब की ‘‘मक्का मदीना’’ थी। 

मदीना मुनव्वरा में आये दूसरा दिन था। मैं होटल के कमरे में किताब ‘‘मक्का मदीना’’ की वरक़ गर्दानी में मसरूफ थी। अचानक पद्रह वर्ष पहले लिखा गया कालम ‘‘गंगा से ज़म-ज़म तक’’ आँखों के सामने आ गया। एक बार फिर मुझे डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) और उनकी ज़िन्दगी का सफर याद आ गया। अम्मी को मैं उनके क़ुबूल-ए-इस्लाम का क़िस्सा बताने लगी। बुलन्द आवाज़ से कालम पढ़कर भी सुनाया। कालम पढ़ने के बाद उनके मुतालिक़ सोचने लगी। उंगलियों पर गिन कर हिसाब लगाया कि अब उनकी उम्र कमोबेश 77 बरस होगी। ख़्याल आया न जाने अब उनकी सेहत इल्मी और तहक़ीक़ी सरगर्मियों की मुतहम्मिल होगी भी या नहीं। दिल में ख़्वाहिश उभरी कि काश मैं उनसे मुलाक़ात कर सकूँ। एक इल्मी व अदबी शख़्सियत से राबता किया और ये ख़्वाहिश-ए-गोश गुज़ार की। उनका जवाब सुनकर मुझे बेहद मायूसी हुई। कहने लगे, कि आज़मी साहब उमूमी तौर पर मेल मुलाक़ात से इंतिहाई गुरेज़ां (बेहद दूर) रहते हैं, ख़्वातीन से तो ग़ालिबन बिल्कुल नहीं मिलते जुलते। इंतिहाई मायूसी के आलम में ये गुफ्तगू इख़्तिताम पज़ीर हुई, लेकिन अगले दिन उन्होंने ख़ुशख़बरी सुनायी कि आज़मी साहब से बात हो गयी है। हिदायत दी कि मैं फोन पर उनसे राब्ता कर लूँ।

ज़िन्दगी में मुझे बहुत से नामूर दीनी, इल्मी, अदबी और दीगर शख़्सियात से मुलाक़ात और गुफ्तगू के मौक़े मिले हैं, ख़ुसूसी तौर पर भारी भरकम सियासी शख़्सियात प्रोटोकाॅल जिनके आगे पीछे बंधा रहता है, लोग जिनकी ख़ुशनूदी ख़ातिर में बिछे जाते हैं। एक लम्हे के लिए मैं किसी शख़्सियत से मरऊब हुई, न किसी के ओहदे, रूत्बे और मर्तबे का रोअब व दबदबा मुझ पर कभी तारी हुआ। लेकिन Bankeram – डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) को टेलीफोन काॅल मिलाते वक़्त मुझ पर घबराहट तारी थी।

दिल की धड़कनें मुंतशिर थीं। उनसे बात करते मेरी ज़ुबान कुछ लड़खड़ाई और आवाज़ कपकपा गयी। अर्ज़ किया कि बरसों पहले एक कालम के तवस्सुत (ज़रिए) से आपसे तआरूफ हुआ था। बरसों से मैं आपके बारे में सोचा करती हूँ। बरसों से ख़्वाहिश है कि आप से शर्फ-ए-मुलाक़ात हासिल हो सके। निहायत आज्ज़ी से कहने लगे, मैं कोई ऐसी बड़ी शख़्सियत नहीं हूँ, जब चाहें घर चली आयें। अगले दिन बाद अज़ नमाज़-ए-इशा मुलाक़ात का वक़्त तय हुआ। निहायत फराख़ दिली से कहने लगे, आपको यक़ीनन रास्तों से आगाही नहीं होगी, कल मेरा ड्राइवर आपको लेने पहुँच जायेगा। शुक्रिया के साथ अर्ज़ किया कि मैं ख़ुद वक़्ते मुक़र्ररा पर हाज़िर हो जाऊँगी। इसके बाद मैं बेताबी से अगले दिन का इंतिज़ार करने लगी। इससे पहले कि मैं उस मुलाक़ात का अहवाल लिखूँ, आप लोगों के लिए Bankeram प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) के क़ुबूल-ए-इस्लाम की मुख़्तसर दास्तान बयान करती हूँ।

सन् 1943 में आज़मगढ़ (हिन्दुस्तान) के एक हिन्दू घराने में एक बच्चे ने जन्म लिया। वालिदेन ने उसका नाम बाकेंराम रखा। बच्चे का वालिद एक ख़ुशहाल कारोबारी शख़्स था। आज़मगढ़ से कलकत्ता तक का उसका कारोबार फैला हुआ था। बच्चा आसायशों से भरपूर ज़िन्दगी गुज़ारते हुए जवान हुआ। वो शिबली काॅलेज आज़मगढ़ में ज़ेरे तालीम था। किताबों के मुताले से उसे फितरी रग़बत थी। एक दिन मौलाना मौदूदी की किताब ‘‘दीने हक़’’ का हिन्दी तर्जुमा उसके हाथ लगा। निहायत ज़ौक़ व शौक़ से उस किताब को पढ़ा। बार-बार पढ़ने के बाद उसे अपने अन्दर कुछ तब्दीली, बेताबी व इजि़्तराब महसूस हुआ। इसके बाद उसे ख़्वाजा हसन निज़ामी का हिन्दी तर्जुमा क़ुरआन पढ़ने का मौक़ा मिला। नौजवान का तालुक़ एक ब्राहम्ण हिन्दू घराने से था। कट्टर हिन्दू माहौल में उसकी तर्बियत हुयी थी। हिन्दू मज़हब से उसे ख़ास लगाओ था। बाक़ी मज़ाहिब को वो बर सरे हक़ नहीं समझता था। इस्लाम का मुताला शुरू किया तो क़ुरआन की ये आयत उसकी निगाह से गुज़री-

तर्जमाः- अल्लाह के नज़दीक़ पसन्दीदा दीन इस्लाम है।

उसने एक बार फिर हिन्दू मज़हब को समझने की कोशिश की। अपने काॅलेज के लैक्चरार जो गीता और वेदों के एक बड़े आलिम थे, से रूजू किया। मगर उनकी बातों से उसका दिल मुत्मइन नहीं हो सका। शिबली काॅलेज के एक उस्ताद हफ्ता वार क़ुरआन का दर्स दिया करते थे। नौजावान की जुस्तुजू को देखते हुए उस्ताद ने उसे हल्क़ा-ए-दर्स में शामिल होने की ख़ुसूसी इजाज़त दे दी।

सय्यद मौदूदी की किताबों के मुसलसल मुताले और दर्से क़ुरआन में बाक़ायदगी से शुमूलियत ने नौजवान के दिल को क़ुबूल-ए-इस्लाम के लिए क़ाइल और माइल कर दिया। परेशानी मगर ये थी कि मुसलमान होने बाद हिन्दू ख़ानदान के साथ किस तरह गुज़ारा हो सकेगा। अपनी बहनों के मुस्तक़्बिल के मुतालिक़ भी वो फिक्रमंद था। यही सोचें इस्लाम क़ुबूल करने की राह में हाइल थीं। एक दिन दर्से क़ुरआन की किलास में उस्ताद ने सूरत अनकबूत की ये आयत पढ़ी-

तर्जुमाः- जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरों को अपना कारसाज़ बना रखा है, उनकी मिसाल मकड़ी की सी है, जो घर बनाती है और सबसे कमज़ोर घर मकड़ी का होता है, काश लोग इस हक़ीक़त से बाख़बर होते।

इस आयत और इसकी तशरीह ने बांकेराम को झंझोड़ कर रख दिया। उसने तमाम सहारों को छोड़कर सिर्फ अल्लाह का सहारा पकड़ने का फैसला किया और फौरी तौर पर इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इसके बाद उसका पेशतर वक़्त सय्यद मौदूदी की किताबें पढ़ने में गुज़रता। नमाज़ के वक़्त ख़ामोशी से घर से निकल जाता और किसी अलग-थलग जगह पर अदायगी करता। चन्द माह बाद वालिद को ख़बर हुयी तो उन्होंने समझा कि लड़के पर जिन-भूत का साया हो गया है। पंडितों पुरोहितों से इलाज करवाने लगे। जो चीज़ वो पंडितों पुरोहितों से लाकर देते ये बिस्मिल्लाह पढ़कर खा लेते।

इलाज मुआलजे में नाकामी के बाद घर वालों ने उसे हिन्दू मज़बह की अहमियत समझाने और दीने इस्लाम से मुतनफ्फिर करने का अहतिमाम किया। जब कोई फायदा न हुआ तो रोने-धोने और मिन्नत समाजत का सिलसिला शुरू हुआ। उससे भी बात न बन सकी तो घर वालों ने भूक पड़ताल का हर्बा आज़माया। वालिदेन और भाई-बहन उसके सामने भूक से निढाल पड़े सिसकते रहते। इसके बाद घर वालों ने मारपीट और तशद्दुद का रास्ता इख़्तियार किया। मगर अल्लाह ने हर मौक़े पर उसे दीने हक़ पर इस्तिक़ामत बख़्शी।

उसने तमाम रूकावटों और मुश्किलात को नज़र अंदाज़ किया। हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ दीनी मदारिस में तालीम हासिल की। उसके बाद मदीना मुनव्वरा की जामिया इस्लामिया (मदीना यूनीवर्सिटी) में दाखि़ल हो गया। जामियतुल मलिक अब्दुल अज़ीज़ (जामिया उम्मुल क़ुरा – मक्का मुअज़्ज़मा) से एम0ए0 किया। मिस्र की जामिया अज़हर क़ाहिरा से पीएचडी की डिग्री हासिल की।

आज़मगढ़ के कट्टर हिन्दू घराने में आँख खोलने वाला ये बच्चा दुनिया-ए-इस्लाम का नामूर मुफक्किर, मुहक़्क़िक, मुसन्निफ और मुबल्लिग़ बन गया।

इन्हें Bankeram – प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) के नाम से पहचाना जाता है। इनकी किताबें हिन्दी, अरबी, अंग्रेज़ी, उर्दू, मलाई, तुर्क और दीगर ज़ुबानों में छप चुकी हैं। इंतिहाई सआदत है कि डाॅक्टर साहब ने सहीह अहादीस को मुरत्तिब करने का एक इंतिहाई भारी भरकम तहक़ीक़ी काम का बेड़ा उठाया और बरसों की मेहनत के बाद उसे पाये तकमील तक पहुँचाया। ऐसा काम जो बड़ी-बड़ी जामियात और तहक़ीक़ी इदारे नहीं कर सके, एक शख़्स ने तन्हे-तन्हा कर डाला। गुज़िश्ता कई बरस से वो मस्जिदे नब्वी में हदीस का दर्स देते रहे हैं। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इस रूये ज़मीन पर बेशुमार नेमतें नाज़िल फरमायीं हैं। इन तमाम में सबसे अज़ीम और अनमोल नेमत ‘‘ईमान’’ की नेमत है। सूरत हुजरात में फरमाने इलाही है कि-

तर्जुमाः- दर असल अल्लाह का तुम पर एहसान है कि उसने तुम्हें ईमान की हिदायत की।

सूरत अनआम में फरमाने रब्बानी है कि-

तर्जुमाः- जिस शख़्स को अल्लाह तआला रास्ते पर डालना चाहे, उसके सीने को इस्लाम के लिए कुशादा कर देता है।

उस शाम, मैं, तय शुदा वक़्त के मुताबिक़ Bankeram – प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Dr. Ziaurrehman Aazmi) से मुलाक़ात के लिए रवाना हुयी तो क़ुरआन की ये आयात मुझे याद आ गयीं। ख़्याल आया कि अल्लाह के इनाम और एहसान की इंतिहा है कि उसने हिन्दू घराने में जन्म लेने वाले को सिरात-ए-मुस्तक़ीम के लिए मुन्तख़ब किया, उसे बांकेराम (Bankeram) से प्रोफेसर डाॅक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी (Professor Dr. Ziaurrehman Aazmi) बना डाला। मदीना यूनीवर्सिटी और मस्जिद-ए-नब्वी में हदीस के मुअल्लिम और मुबल्लिग़ की मसनद पर ला बैठाया।

डाॅक्टर साहब का घर मस्जिद-ए-नब्वी से चन्द मिनट की मसाफत पर वाक़े है। घर पहुँची तो आज़मी साहब इस्तिक़बाल के लिए खड़े थे। निहायत शफ्क़त से मिले। कहने लगे, आप पहले घर वालों से मिल लीजिए। चाय वग़ैरा पीजिए। इसके बाद निशस्त होती है। मेहमान ख़ाना में दाखि़ल हुयी तो उनकी बेगम मुन्तज़िर थीं। मुहब्बत और तपाक से मिलीं। चन्द मिनट बाद उनकी दोनों बहने चाय और दीगर लवाज़मात थामे चली आयीं। कुछ देर बाद उनकी बेटी भी आ गयी। इसके बाद घर में मौजूद तमाम छोटे बच्चे भी।

उनकी बेगम ने जामिया कराची से एम0ए0 कर रखा है। कहने लगीं, पी0एच0डी0 में दाखि़ला लेने का इरादा था लेकिन शादी हो गयी। तजस्सुस से सवाल किया कि डाॅक्टर साहब (Dr. Ziaurrehman Aazmi) हिन्दुस्तानी थे जबकि आप पाकिस्तानी। शादी कैसे हो गयी। कहने लगीं कि मेरे मामूं मदीना यूनीवर्सिटी से मुन्सलिक थे। आज़मी साहब से उनकी मेल मुलाक़ात रहती थी। बताने लगीं कि आज़मी साहब इस क़दर मसरूफ रहा करते थे कि मेरे पढ़ने लिखने की कोई गुंज़ाइश नहीं निकलती थी। अल्बत्ता चन्द साल पहले मैंने हिफ्ज़े क़ुरआन की सआदत हासिल की। तीनों बच्चे इशाअते दीन की तरफ नहीं आये। उनका ख़्याल था कि जितना काम उनके वालिद ने किया है इस क़दर वो कभी नहीं कर सकेंगे। यही सोचकर वो मुख़्तलिफ शोअबों में चले गये। फिर कहने लगीं कि आप किसी भी शोअबों में हों, अल्लाह के बन्दों की खि़दमत करके अपनी आखि़रत संवार सकते हैं।

आध पौन घन्टे बाद आज़मी साहब का बुलावा आ गया। उनके लाइब्रेरी नुमा दफ्तर का रूख़ किया। इब्तिदाई तआरूफ के बाद कहने लगे कि मीडिया और दीगर लोग इंटरव्यू वग़ैरा के लिए राबता करते हैं। मैं अपनी ज़ाती तशहीर से घबराता हूँ। दर्ख़ास्त करता हूँ कि मेरी ज़ात के बजाए, मेरी तहक़ीक़ी काम की तशहीर की जाये। ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इससे आगाह और मुस्तफीद हो सकें। फिर अपनी किताबें दिखाने और तहक़ीक़ी काम की तफ़सीलात बताने लगे। उनकी तहक़ीक़ और दर्जनों तसानीफ की मुकम्मल तफसील कई सफ्हात की मुताक़ाज़ी है। लेकिन एक तस्नीफ (बल्कि अज़ीम कारनामा) का मुख़्तसर तजि़्करा ज़रूरी है। डाॅक्टर साहब ने बीस बरस की मेहनत और जांफिशानी के बाद ‘‘अल-जामेअ अल-कामिल फिल हदीस अल-सहीह अल-शामिल’’ की सूरत एक अज़ीमुल शाल इल्मी और तहक़ीक़ी मंसूबा पाये तकमील तक पहुँचाया है। इस्लाम की चैदह सौ साला तारीख़ में ये पहली किताब है जिसमें रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम की तमाम सहीह हदीसों को मुख़्तलिफ कुतुबे अहादीस से जमा किया और एक किताब में यकजा कर दिया गया है। अल-जामेअ अल-कामिल सोलह हज़ार आठ सौ हदीसों पर मुशतमिल है। इसके छैः हज़ार अब्वाब हैं। इसका पहला ऐडीशन 12 जबकि दूसरा ऐडीशन इज़ाफात के साथ 19 ज़ख़ीम जिल्दों पर मुशतमिल है।

(Bankeram – Dr. Ziaurrehman Aazmi) आज़मी साहब ने बताया कि कमोबेश 25 बरस में बतौर प्रोफेसर दुनिया के मुख़्तलिफ मुमालिक के दौरे करता रहा। अकसर ये सवाल उठता कि क़ुरआन तो एक किताबी शक्ल में मौजूद है। मगर हदीस की कोई एक किताब बताऐं, जिसमें तमाम अहादीस यकजा हों। जिस से इस्तिफादा किया जा सके। सदियों से उलमा-ए-किराम और मुबल्लिग़ीन से ग़ैर मुस्लिम और मुस्तशरिक़ीन ये सवाल किया करते। मगर किसी के पास इसका तश्फी बख़्श जवाब न था। मुझे भी ये सवालात दर्पेश रहते। लिहाज़ा मैंने हदीस की एक किताब मुरत्तब करने का बेड़ा उठाया। उन्होंने बताया कि तबअ दौम में 99 फीसद सहीह अहादीस आ गयी हैं, सौ फीसद कहना इस लिए दुरूस्त नहीं कि सद फीसद सहीह सिर्फ अल्लाह की किताब है।

इंतिहाई हसरत से इस्तिफ्सार किया कि इस क़दर दक़ीक़ और पेचीदा काम आपने तने तन्हा कैसे पाये तकमील तक पहुँचाया। कहने लगे, मेरी ये बात गिरह से बांध लीजिए कि किसी काम की ‘‘लगर और जुस्तुजू’’ हो तो वो ना मुमकिन नहीं रहता। सवाल किया कि इस क़दर भारी भरकम तहक़ीक़ के लिए आप दिन-रात काम में जुते रहते होंगे। कहने ले, अट्ठारह-अट्ठारह घण्टे काम किया करता था। सुबह सवेरे काम का आग़ाज़ करता और रात दो ढाई बजे तक मसरूफ रहता। बताने लगे कि ये (वसी व अरीज़) घर जो आप देख रही हैं, ये सारा घर एक लाइब्रेरी की मानिन्द था। हर जानिब किताबें ही किताबें थीं। यूँ समझें कि मैंने एक लाइब्रेरी में अपनी चारपाई डाल रखी थी। जब तहक़ीक़ी काम मुकम्मल हो गया तो मैंने ये तमाम किताबें अतिया (दान) कर दीं। ख़ानदान का तआवुन मयस्सर न होता तो मैं ये काम नहीं कर सकता था। कम्प्यूटर की जानिब इशारा करके बताने लगे कि मैं इसे इस्तेमाल नहीं कर सकता। अशरों से मामूल है कि अपने हाथ से लिखता हूँ कोई न कोई शार्गिद मेरे साथ मुन्सलिक रहता है, वो कम्पोज़िंग करता है।

बांकेराम (Bankeram ) उर्फ़ (Dr. Ziaurrehman Aazmi) डाॅक्टर आज़मी साहब हिन्दी और अरबी ज़ुबान में बीसियों किताबें लिख चुके हैं। उन तसानीफ के तराजुम दर्जनों ज़बानों में छपते हैं। सऊदी अरब और दीगर मुमालिक की जामियात और दीनी मदारिस में उनकी कुतुब पढ़ाई जाती हैं। कहने लगे कि निहायत तकलीफ दह बात है कि मुसलमानों ने हिन्दुस्तान में कमोबेश आठ सदियों तक हुकमुरानी की। बादशाहों ने आलीशान इमारात तामीर करवायीं। ताहम ग़लती ये हुयी कि उन्होंने अपने हम वतन ग़ैर मुस्लिमीन को इस्लाम की तरफ राग़िब करने के लिए इशाअते दीन का काम नहीं किया। हिन्दुओं की किताबों का फारसी और संस्कृत में तर्जुमा करवाया। मगर क़ुरआन व हदीस का हिन्दी तर्जुमा नहीं करवाया। अगर मुसलमान हुकमरान ये काम करते तो यक़ीन जानें कि आज सारा भारत मुसलमान हो चुका होता। (उन दिनों भारत में मुसलमानों को शहरियत से मेहरूम करने की मुहिम उरूज पर थी), कहने लगे कि अगर बर्रे सग़ीर के मुसलमान हुकमरानों ने इशाअते दीन का फरीज़ा अंजाम दिया होता, तो आज ये नौबत न आती। भारत में 80 करोड़ हिन्दू बसते हैं। मिशन मेरा ये है कि हर हिन्दु घराने में क़ुरआन और हदीस की कुतुब पहुँचें। यही सोचकर मैं हिन्दी ज़बान में लिखता हूँ।

इस मक़सद के तहत Dr. Ziaurrehman Aazmi साहब ने हिन्दी ज़बान में ‘‘क़ुरआन मजीद इंसाइकिलोपीडिया’’ की तसनीफ फरमायी। अरसा दस बरस में ये तहक़ीक़ी काम मुकम्मल हुआ। ये किताब क़ुरआन पाक के तक़रीबन छैः सौ मौज़ूआत पर मुशतमिल है। तारीख़े हिन्द में ये अपनी नौइयत की पहली किताब है जो इस मौज़ू पर लिखी गई। ये किताब भारत में काफी मक़बूल है। अब तक इसके आठ ऐडीशन शाये हो चुके हैं। कुछ बरस पहले इसका अंग्रेज़ी और उर्दू तर्जुमा भी पाये तकमील को पहुँचा। सवाल किया कि आपकी किताबों से हिन्दू और दीगर ग़ैर मुस्लिम मुतासिर होते हैं? कहने लगे, जी हां, ख़बरें आती रहती हैं कि मेरी फुलां फुलां किताब पढ़ने के बाद फुलां-फुलां ग़ैर मुस्लिम हल्क़ा बगोशे इस्लाम हो गये।

कमोबेश गुज़िशता बीस बरस से उन्होंने कोई सफर नहीं किया। कहने लगे कि लाइब्रेरी से दूर कहीं आने जाने को जी नहीं चाहता। किताबों से दूर होता हूँ तो घबराहट होने लगती है। मालूम किया कि आज कल क्या मसरूफियात हैं? बताने लगे, कि कुछ तहक़ीक़ी काम जारी हैं। गुज़िश्ता आठ दस बरस से मस्जिद-ए-नब्वी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) में हदीस का दर्स देता हूँ। पहले बुख़ारी शरीफ और सहीह मुस्लिम के दुरूस दिये। आज कल सुनन अबी दाऊद का दर्स जारी है। बताने लगे कि मैं लैक्चर कुछ इस तरह तैयार करता हूँ कि शरह तैयार हो जाये। ताकि लैक्चर्ज़ मुकम्मल होने के बाद किताबी शक्ल में छप सके। मुख़्तसर ये कि उन्होंने दीन की नशरो इशाअत को अपना ओढ़ना बिछोना बना रखा। उनकी हर तालीमी, इल्मी और तहक़ीक़ी सरगर्मी के पीछे यही जज़्बा व जुनून कार फरमा है।

आखि़र में, मुझे अपनी कुछ किताबों का उर्दू तर्जुमा इनायत किया। उन पर मेरा नाम और अरबी ज़ुबान में दुआइया कलमात तहरीर फरमाये। कमोबेश ढाई-तीन घण्टों बाद मैंने वापसी की राह ली। आज़मी साहब बरामदा तक तशरीफ लाऐ, गाड़ी घर से बाहर निकलने तक वहीं खड़े रहे। होटल वापस लौटते वक़्त मुझे उन पर निहायत रश्क आया। ख़ुद पर इंतिहाई नदामत हुई। ख़्याल आया कि एक मैं हूँ, जिसे बरसों से दुनिया जहान के बे-वक़अत कामों से फुरसत नहीं। एक ये हैं जो बरसों से हक़ीक़ी फलाह और कामयाबी समेटने में मसरूफ हैं। दुआ की कि काश मुझे भी अल्लाह का पैग़ाम समझने, इस पर अमल करने और इसकी नशरो इशाअत की तौफीक़ नसीब हो जाये, आमीन!

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अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहु

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