Thought Power : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, प्रिय पाठकगण, अस्सलामु अलैकुम व रह मतुल्लाहि व ब रकातुहू! इस पोस्ट में हम चर्चा कर रहे हैं मनुष्य के विचार शक्ति (Thought Power) की कि उसे अपने विचार शक्ति (Thought Power) मतलब सोचने व समझने की ताक़त जिसे ईश्वर ने संसार के हर एक प्राणी को प्रदान की है। जिसके द्वारा वो अपने कार्यों को भलि भाँति कर सकते हैं। परन्तु जो विचार शक्ति (Thought Power) मनुष्य को प्रदान की गई वो किसी और को प्रदान नहीं की गई है। अब मनुष्य अपने विचार शक्ति (Thought Power) से विचार करें कि उन्हें आज्ञापालन किसका (Whose Obedience) करना चाहिए किसकी इताअत और इबादत (प्रार्थना) करनी चाहिए। परन्तु मनुष्य अपनी विचार शक्ति (Thought Power) का उपयोग कदापि नहीं करता है और वो ईश्वरीय पूजा पर विभिन्न देवी देवताओं की पूजा पाठ में लग कर अपने विचार शक्ति (Thought Power) का ग़लत उपयोग करके अंधकार में डूबता चला जा रहा है। अतः इस पोस्ट के माध्यम से इस संदेश को आप तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है। Now let’s start Thought Power : Whose Obedience?
ईश्वर ने इस धरती को बनाया और इस धरती पर मनुष्य को उतारा। उसने उसके लिये हवा, पानी और गर्मी का प्रबन्ध किया। उसकी उदर पूर्ति के लिये विविध प्रकार की वनस्पतियां इस पृथ्वी पर उगाईं। ये समस्त वस्तुएँ प्रत्येक स्थान पर उपयुक्त मात्रा में बिना मांगे मिलती हैं। वायु जो अपरिमित मात्रा में हमें मिलती है यदि एक क्षण के लिये भी इसका अभाव हो जाये तो कोई जीव इस पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकता सुनिश्चित क्रम से ज़रा भी हट कर चलने लगे तो मानव जीवन के साथ-साथ प्रत्येक जीव का जीवन कितना अव्यवस्थित हो जायेगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं।
इसी प्रकार की अन्य उपलब्धियां ईश्वर ने हमें प्रदान की हैं जिनके अभाव में हमारा एक क्षण जीवित रहना असम्भव हो सकता था। इससे आगे बढ़ कर हम देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि कुछ शक्तियाँ उसने हमें व्यक्तिगत रूप से प्रदान की हैं। जिनमें से एक “विचार शक्ति” भी है। जिसकी सहायता से हम अपना हित अनहित जान पाते हैं। यह विचार शक्ति ईश्वर ने पशु-पक्षियों को नहीं प्रदान की है।
प्रकृति की प्रत्येक वस्तु पर यदि हम एक सूक्ष्म दृष्टि डालें तो हमें ज्ञात होता है कि यहाँ प्रत्येक वस्तु एक निश्चित क्रम और व्यवस्था में बन्धी चल रही है। ऐसा लगता है जैसे किसी विशेष विधान, एवं निपुण आदेशानुसार इनका व्यवस्था क्रम चल रहा है। पशु-पक्षियों के लिये भी सुनिश्चित आदेश हैं जिनको टाल कर वे किसी प्रकार भी मनमानी नहीं कर पाते । उनका खान पान, उनका प्रजनन एक व्यवस्थित क्रम में होता है। जो पशु घास या पत्तियाँ खा कर अपना निर्वाह करते हैं वे मांस नहीं खाते। जो जीव जल में रहते हैं वे थल में नहीं रह सकते और जो थल में रहते हैं वे जल में नहीं रह पाते।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि रात के पश्चात दिन और दिन के पश्चात रात आती है। कोई भी शक्ति दिन को रात और रात को दिन करने की सामर्थ्य नहीं रखती। इसी प्रकार सर्दी, गर्मी और बरसात एक विशेष नियमाधीन एक के पश्चात एक आती रहती हैं। ये सब ऐसे उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का एक-एक कण किसी एक के आदेशों का पालन करता अपने कार्य में व्यस्त है सबके लिये एक नियम है एक विधान है जिसका उल्लंघन वह नहीं कर सकता और न ही वह किसी और के आदेशों का पालन करता है। यदि ऐसा होता कि आदेश देने वाली शक्तियां कई एक होती तो प्रकृति के नियम और विधान भी अलग शक्तियों के आदेशानुसार बदलते रहते।
तो अब विचार करने की बात यह है कि जब प्रत्येक जीव, प्रत्येक पदार्थ जड़ और चेतन को उसने एक व्यवस्था में बांधा है और उनके लिये एक विशेष नियम बनाया है तो क्या मनुष्य को उसने यूं ही छोड़ दिया होगा उसके लिये कोई व्यवस्था, कोई क्रम, कोई विधान नहीं बनाया होगा। उपरोक्त विवरण के अनुसार ऐसा होना सर्वथा असम्भव है कि ईश्वर ने मनुष्य के लिये कोई विधान, कोई क्रम या वैध और अवैध की सीमायें निर्धारित न की हों। ऐसा कहना कि मनुष्य के लिये उसने कोई नियम, कोई क़ानून और कोई आदेश नहीं दिये हैं यह सरासर अज्ञान एवं सत्य को झुठलाने वाली बात होगी।
यदि मानव इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाये तो हम देखते हैं कि जब से मानव इस पृथ्वी पर आया है तब से उसके हृदय में एक प्रकृतिक भावना पल रही है, वह है “दोष और गुण में अन्तर और भिन्नता का बोध”। सारा समाज दोष और गुण की व्याख्या में सदा से एकमत रहा है। परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि स्थान-स्थान पर मानव समाज की आचार व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न रूप में पनपती रही हैं। इन्हीं आचार व्यवस्थाओं की भिन्नता के आधार पर मनुष्य ने भिन्न-भिन्न जीवन व्यवस्थाओं का निर्माण किया। और सारा मानव समाज पृथक-पृथक संस्कृतियों में बंट कर रह गया। सांस्कृतिक विचार विभेद ने ही मानव को मानव से दूर कर दिया जिसके फलस्वरूप मानव में मानव के प्रति ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा एवं परायेपन की भावना ने जन्म लिया ।
इस भिन्नता के मूल कारण की खोज करने जब हम निकलते हैं तो कुछ महत्वपूर्ण बातें हमारे सामने आती हैं। “ब्रह्माण्ड और उसके अस्तित्व तथा मनुष्य का ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध”। इन से भी परे दो तत्व बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन पर आज तक मानव समाज में बड़ा विचार विभेद रहा है, पहला ‘आत्मा’ और दूसरा ‘परमात्मा’ अर्थात ईश्वर।
इन बातों पर विचार करने से पूर्व आवश्यक है कि हम देखें कि कौन सी बातें प्रत्येक जीवन व्यवस्था एवं आचार सम्बन्धी व्यवस्था में समान रूप से पायी जाती हैं। इसके लिये हम दो तत्वों को समक्ष रख कर विवेचन करें तो हम देखते हैं कि मानव प्रकृति में तो परस्पर समानता ही समानता है | व्यक्तिगत रूप में इनमें अल्पाधिक होना तो स्वाभाविक ही है किन्तु असमानता कहीं भी नहीं दीखती। यहां हम ‘दोष’ एवं ‘गुण’ का विवेचन करें तो-
गुणों के अन्तर्गत-सत्य, न्याय, सहानुभूति, दया, उदारता, शान्ति, धैर्य, उच्च संकल्प, वीरता, स्वाभिमान, कर्त्तव्यपरायण और सच्चरित्रता आते हैं। इन गुणों को प्रत्येक मानव समाज और जीवन व्यवस्था ने प्रशंसनीय एवं नैतिकता के लिये उच्चतम कल्पना के रूप में स्वीकार किया है।
दोष के अन्तर्गत-असत्य, अन्याय एवं अत्याचार, स्वार्थपरिता, कृपणता, असन्तोष, तुच्छता, कायरता, कपट, अभिमान, दम्भ, छल ईर्ष्या, व्यभिचार एवं दुश्चरित्रता आते हैं। इन दोषों को प्रत्येक समाज ने राज्य एवं मानव समाज के लिये अकल्याणकारी ही कहा है। किसी भी देश या काल में इन्हें ग्राह्य अथवा प्रशंसनीय नहीं कहा है।
इन समानताओं के साथ-साथ जीवन सम्बन्धी मानवीय तथ्यों पर मतभेद होना बड़ी अस्वाभाविक सी बात लगती है। परन्तु इसे हम यदि अपनी दृष्टि से ओझल कर दें तो उसका परिणाम अशान्ति और मानव संहार के अतिरिक्त और कुछ नहीं निकल सकता। यह एक ऐसा सत्य है जिसे मानव इतिहास चीख़-चीख़ कर कह रहा है कि आज तक अशान्ति और मानव का रक्तपात आचार सम्बन्धी एवं जीवन सम्बन्धी व्यवस्थाओं में मतभेद के कारण हुआ है। इस असमानता एवं मतभेद को समाप्त करने के लिये हमें इसके मूल स्रोत्र को ढूंढ़ना चाहिये। इस ओर जब हम ऐतिहासिक, प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक तथ्यों का अनुसन्धानिक दृष्टिकोण से अवलोकन करते हैं तो निम्नलिखित बातें हमारे सामने आती हैं
पूर्व पुरुष जब भी कभी इस पृथ्वी पर आया होगा तब उसके साथ ही पूर्व नारी का जन्म होना भी निश्चित हो जाता है अन्यथा आज जो एक विशाल मानव समाज हमारे समक्ष है इसका होना असम्भव था। इसके साथ-साथ मनुष्य जन्म उसके समरूप स्त्री के गर्भ से ही हो सकता है। किसी चौपाये अथवा जानवर के गर्भ से मनुष्य की उत्पत्ति न तो ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हो पाई है और न ही वैज्ञानिक दृष्टि से यह संम्भव हो पाया है। अतः मनुष्य समाज में भिन्नता का कारण भिन्न-भिन्न जीवों के गर्भ से उत्पत्ति तो है नहीं। दोष और गुण का जो वोध एवं अन्तर की जो भावना आज के मानव में है वह सदा से रही है और वह उसी पूर्व पुरुष की अनुभूति है। आत्मा एवं परमात्मा (ईश्वर) तत्व का ज्ञान जो कुछ आज हमारे समक्ष है वह कोई नवीन वस्तु नहीं। वह भी हमें उसी पूर्व पुरुष से प्राप्त हुआ। जैसा कि मनुष्य स्वभाव से ही परम्परा का दास है अतः ईश्वर की कल्पना भी परम्परागत रूप से हमें उसी पूर्व पुरुष प्राप्त होना सिद्ध होता है।
इस प्रकार जो तथ्य हमारे सामने आते हैं वे ये हैं कि ईश्वर ने सवप्रथम इस पृथ्वी पर एक मानव दम्पत्ति को उत्पन्न किया फिर उसी से ये समस्त मानव उत्पन्न हुए जो आज सारे विश्व में फैले हुए हैं। इस मानव सन्तति का एक समय तब ही समुदाय के रूप में एक ही स्थान पर बसी रही। उसका धर्म और भाषा एक ही थी। फिर कालान्तर के साथ-साथ उनकी संख्या बढ़ती गई और वे सारी पृथ्वी पर फैलते गये। कालान्तर और जनवायु के अनुसार ही उनके भिन्न-भिन्न रंग रूप और आकृति बनती गई। उनके रहन सहन और खान-पान के साथ उनके रीति रिवाज़ भी बदलते गये। रीति-रिवाजों ने ही धर्म का रूप ले लिया। और धीरे-धीरे वे अपने पूर्व धर्म को भूलते गये
और नई नई विचारधाराओं ने जन्म लिया जिसके फलस्वरूप ईश्वर ब्रह्माण्ड एवं इस ब्रह्माण्ड में मानव का अस्तित्व तथा ईश्वर के सम्बन्ध में भी विभिन्न प्रकार के मत और विचारधाराएं बनती गईं। भूगोलिक एवं प्राकृतिक अवस्थाओं के कारण जो पृथकता मानव समुदाय में आई थी उसके साथ धर्म एवं ईश्वर की कल्पना में भी एक महान अन्तर मानव मस्तिष्कों में उत्पन्न हो गया और स्थान स्थान पर विभिन्न प्रकार की जीवन व्यवस्थाओं तथा आचार सम्बन्धी व्यवस्थाओं ने जन्म लिया जिन्हें मनुष्य ने धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया और वे आज तक परम्परागत रूप में मानव जीवन के साथ साथ चली आ रही हैं। किसी स्थान पर मानव समुदाय ईश्वरीय कल्पना को लगभग भूल ही गया और फिर अपनी आवश्यकतानुसार उसने आपने मस्तिष्क एवं भावना के वशीभूत हो कर विभिन्न प्रकार एवं आकारों में ईश्वर की कल्पना की। और वह वास्तविक कल्पना से बहुत दूर चला गया। फिर भी समय-समय पर विस्मृत धर्म एवं ईश्वरीय कल्पना की पुनःवृत्ति ईशदूतों के द्वारा यहाँ होती रही और लोप होती रही।
आज वर्तमान युग में भी वास्तविक ईश्वरीय कल्पना सर्बथा लुप्त नहीं हुई है और किसी न किसी रूप में अल्पाधिक अवस्था में वह विद्यमान है। यह हमारी अपनी बुद्धि की क्षमता है कि वह कहाँ तक उसकी खोज करती है और उसे स्वीकार करती है। यदि हम आज भी उसी पूर्व पुरुष द्वारा वर्णित धार्मिक परिपाटी की खोज करके उसे स्वीकार करलें तो हमारे समस्त जीवन सम्बन्धी मानवीय मतभेद मिट सकते हैं और समस्त मानव समाज एकता के अखण्ड सूत्र में बंध कर शान्ति एवं कल्याण को प्राप्त कर सकता है।
अब प्रश्न है कि अन्ततः वह कौन सी जीवन व्यवस्था है जो वास्तविक ईश्वरीय कल्पना पर आधारित है और जिसके आदेशों का पालन करके मानवीय जीवन वास्तविक सफलता को प्राप्त कर सकता है?
इसके लिए एक ऐसी जीवन व्यवस्था हमें ढूंढनी है जिसका आधार प्रजातीय, देशीय एवं जातीय परम्परा न हो। जिसमें मनुष्यों के सम्बन्धों का आधार उनका जन्म न हो बल्कि एक विश्वास एक आस्था और एक ही नैतिक विधान हो। जिसमें प्रजातीय, जातीय अथवा वर्गीय अन्तर के लिये कोई स्थान न हो, ऊँच नीच, छूत छात का जिसमें कोई अस्तित्व न हो। विवाह सम्बन्ध, पारस्परिक मेल मिलाप में किसी प्रकार की बाधाएं न हों। जन्म तथा व्यवसाय की दृष्टि से ऊँच-नीच, उत्तकृष्ट अथवा निकृष्ट घोषित करने का कोई पैमाना न हो। जाति अथवा वंश के आधार पर किसी को विशेष अधिकार प्राप्त न हो । एक ऐसी जीवन व्यवस्था हमें अपनानी होगी जो वर्ण, भाषा, जाति एवं समस्त भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर पृथ्वी के प्रत्येक भाग में रहने वाले लोगों को गले लगाती हो। ऐसी ही आचार व्यवस्था के आधार पर एक विश्वव्यापी मानव समाज का निर्माण हो सकता है जिसका आधार परस्पर बन्धुत्व होगा। एक ऐसी जीवन व्यवस्था में हमें अपने आपको बांधना होगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर को अपना स्वामी, सम्राट एवं उपास्य माने । किसी और की दासता स्वीकार न करे। जीवन सम्बन्धी समस्त समस्याओं एवं पहलुओं का समाधान अपने या अपने जैसे अन्य मनुष्य के आदेशानुसार न करके इशदूतों द्वारा कथित ईश्वरीय आदेशों को अपने लिये आज्ञा समझे। मनुष्य रचित समस्त विधानों के बन्धनों को तोड़ कर ईश्वरोक्त आदेशों को ही अपनी जीवन व्यवस्था समझे। एक ऐसी ही जीवन व्यवस्था हमारे लिये आदेश हो सकती है जो अविकल्प हो और जिसमें मनुष्य रचित आदेशों का मिश्रण न हो।
इस प्रकार मानवता को एकता एवं धार्मिकता के अखण्ड सूत्र में बाँधने के लिये ईश्वरीय आदेशों को ही जीवन व्यवस्था के रूप में अपनाया जा सकता है। उसके द्वारा भेजे गये सन्देष्टाओं के आदेशों को आज्ञा समझ कर उनका पालन किया जा सकता है। और यह सब प्राप्त करने के लिये हमें कुछ नहीं करना है। केवल करना है तो इतना कि हम अपनी बुद्धि को स्वार्थपरित और हठधर्मी की ओर से हटा कर सत्य को स्वीकार करने योग्य बनायें और तटस्थ हो कर सत्य को अपना सकें। वास्तविकता से सहमत हो सकें।
वस्सलामु अलइकुम व रह म तुल्लाहि व ब र कातुहू!
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