Prophet Muhammad SAW : इस्लाम के प्रचारक : Preacher of Islam


Prophet Muhammad SAW : इस्लाम का प्रचार स्वाभाविक रूप से Preacher of Islam पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के घर से आरंभ हुआ। आप (Prophet Muhammad SAW) की पत्नी हज़रत ख़दीजा (रजि.), बच्चे हज़रत अली (रजि.), घरेलू सेवक तथा दत्तक पुत्र हज़रत जैद बिन हारिसा (रजि.) ने आसानी से नये दीन (धर्म) को स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे सब जानते थे कि आप (Prophet Muhammad SAW) झूठ नहीं बोलते थे और दूसरों की निस्वार्थ भाव से सेवा करते थे । इसके बाद आप (Prophet Muhammad SAW) ने अपने निकटतम दोस्तों को इस्लाम की ओर आमंत्रित किया, जिसमें सबसे पहले हज़रत अबू बक्र (रजि.) ने इस्लाम स्वीकार किया और साथ ही इसके प्रचार-प्रसार में लग गये । उनके प्रयासों से मक्का के युवाओं की एक बड़ी संख्या ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। हज़रत अबू बक्र (रजि.) ने अपना धन ऐसे गुलामों को खरीद कर आज़ाद करने में ख़र्च किया जो इस्लाम स्वीकार कर चुके थे और इस कारण उनके मालिक उन पर अत्याचार कर रहे थे । इसके बाद नबी (Prophet Muhammad SAW) के रिश्तेदारों और कबीले वालों को इस्लाम की ओर बुलाने का कठिन चरण आया । इन लोगों का इस्लाम स्वीकार करना इसलिए भी ज़रूरी था ताकि मक्का के इस्लाम विरोधियों की इस कटु आलोचना का जवाब दिया जा सके जो कहते थे कि “देखो, मुहम्मद के रिश्तेदार उसे करीब से जानने के बावजूद उसके सन्देश को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।” नये और आधुनिक विचारों वाले युवाओं की तुलना में रूढ़िवादी वयोवृद्ध लोगों को नयी विचारधारा से संतुष्ट करना बहुत मुश्किल होता है। पैगम्बर (Prophet Muhammad SAW) के सगे चचा और आपके क़बीले के सरदार अबू तालिब यद्यपि आप (Prophet Muhammad SAW) से बहुत प्रेम करते थे, मगर उनके लिए (आयु में अपने से छोटे की बात को श्रेयस्कर मान लेना अर्थात्) अपने भतीजे के आह्वान पर बाप-दादा के धर्म को छोड़ देना उनके स्वाभिमान के खिलाफ था ।

अबू तालिब के बाद नबी (सल्ल.) के कबीले में आपके दूसरे सगे चचा अबू लहब का स्थान था । मगर वह आप (सल्ल.) का सबसे बड़ा दुश्मन था । यद्यपि अबू तालिब ने आप (Prophet Muhammad SAW) के सन्देश को स्वीकार करने में संकोच का अनुभव किया था, मगर अबू लहब तो अपने सभी संसाधनों के साथ आप (Prophet Muhammad SAW) के विरोध पर उतर आया था । जब आप (Prophet Muhammad SAW) अपने रिश्तेदारों के बीच इस्लाम की शिक्षाएं बताते तो अबू लहब व्यंग्य बाण चलाकर और अनर्गल प्रलाप से मामला बिगाड़ देता ।

मानवता उपकारक हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस सोच के साथ कि मेरे रिश्तेदारों का दुराग्रह और संकोच एक न एक दिन समाप्त हो जाएगा, मक्का के आम लोगों को इस्लाम की ओर बुलाना शुरू कर दिया । आप (Prophet Muhammad SAW) के आह्वान ने अधिक आयु वाले लोगों की अपेक्षा (13 से 29 वर्ष की आयु के) युवाओं में अधिक सफलता पायी ।

इस स्थिति से अप्रत्याशित समस्याओं ने जन्म लिया । वयोवृद्ध व्यक्तियों की इस्लाम धर्म से उदासीनता उस समय प्रखर शत्रुता में बदल गयी जब उनके अपने बच्चों और युवा रिश्तेदारों ने इस्लाम स्वीकार करना शुरू कर दिया । ऐसे में जब स्थानीय प्रतिष्ठित परिवारों के युवकों अर्थात् फरास बिन नस, अबू हुजैफ़ा बिन उत्वा, हिशाम बिन आस और वलीद बिन वलीद आदि ने इस्लाम स्वीकार किया तो उनके मां-बाप ने इसे अपना अपमान समझा । उन्होंने न केवल अपने बेटों पर अत्याचार जारी रखा, बल्कि पैगम्बर (सल्ल.) के इस्लाम के प्रचार के पवित्र कार्य में खुल्लम-खुल्ला विघ्न डालने लगे। इस्लाम स्वीकार करने वाले गुलाम मदों और औरतों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी । अपने बच्चों की तरह उनके प्रति कोई व्यक्ति दयाभाव नहीं रखता था । और जब मुहम्मद (सल्ल.) ने इस बात की पुष्टि की कि

बहुदेववादियों का ठिकाना जहन्नम है तो वे लोग भड़क उठे । फिर जब यह उद्घोष किया गया कि उन बहुदेववादियों के पुरखे भी अल्लाह के प्रकोप एवं दंड के भागी होंगे, तो वे लोग नये दीन (धर्म) का समर्थन कैसे कर सकते थे? मगर अल्लाह के आखिरी पैगम्बर (सल्ल.) के इस उद्घोष पर भड़कना और शत्रुता का प्रदर्शन करना केवल एक बचकाना हरकत थी । क्या इस प्रकार सर्वथा दयालु पैगम्बर (सल्ल.) बिना किसी भेदभाव के स्वयं अपने पुरखों को इस उद्घोष में शामिल नहीं कर रहे थे?

समय बीतने के साथ-साथ आप (Prophet Muhammad SAW) की पैगम्बरी की खबर मक्का से निकलकर दूर-दूर तक फैल गयी । नबी (सल्ल.) का नियम यह था कि आप (Prophet Muhammad SAW) हज के दिनों में जबकि अरब के प्रत्येक भाग से काफ़िले हज करने के लिए मक्का में और उसके आसपास फैल जाते तो आप (सल्ल.) इस भीड़ से लाभ उठाते हुए उनके सामने इस्लाम का सन्देश प्रस्तुत करते । इस प्रकार बहुत से अजनबी एक विशेष प्रकार की जिज्ञासा के वशीभूत मुहम्मद (सल्ल.) की बातों पर ध्यान देते थे।

हज़रत अबू जर्र (रजि.) इस्लाम स्वीकार करने से पहले एक लुटेरे थे । एक दिन उन्होंने एक काफिले पर हमले के दौरान महिलाओं और बच्चों की चीख-पुकार और बदुआ सुनी तो उनकी अन्तरात्मा जाग उठी । वे अपने कृत्य पर शर्मिन्दा हुए। उन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें पता चला कि मक्का में उच्च नैतिकता का एक आन्दोलन चलाया जा रहा है। वे बद्र नामक घाटी से एक लम्बी दूरी तय करके मक्का पहुंचे और इस्लाम स्वीकार कर लिया । फिर वे नबी (सल्ल.) के कहने पर वापस अपने इलाके में पहुंचकर नये धर्म इस्लाम के प्रचार-प्रसार में व्यस्त हो गये ।

इस्लाम के ख़िलाफ़ विरोधियों के झूठे प्रोपेगंडे से यमन का एक निवासी इतना प्रभावित और भयभीत हुआ कि जब वह मक्का आया तो उसने अपने दोनों कानों में कपड़ा लूंस लिया था ताकि आप (Prophet Muhammad SAW की ‘जादू-भरी’ बातों से बच सके, मगर जल्द ही उसने अपनी इस नकारात्मक और कायरतापूर्ण नीति पर स्वयं की निंदा की और अपने आपसे कहा, “उस (पैगम्बर) की बात सुन लेने में हरज ही क्या है। मैं इतनी बुद्धि तो रखता ही हूं कि उसकी बातों को खुद परख सकूँ ।” और फिर इस्लाम के सीधे-सादे मगर तत्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता से भरे सिद्धांतों ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया । इसी तरह हब्शा से मक्का आने वाले कुछ लोगों ने भी जो संभवत: व्यापारी थे, इस्लाम स्वीकार कर लिया ।

आप (Prophet Muhammad SAW) के युवा चचा हज़रत अमीर हमज़ा (रजि.) की घटना कुछ अलग है । एक दिन वे घूम-फिरकर और शिकार करके वापस शहर पहुंचे तो उनकी सेविका ने उन्हें बताया कि उस दिन अबू जहल ने उनके भतीजे मुहम्मद (सल्ल.) को बहुत सताया है और पूरा विवरण सुनाया । हज़रत हमज़ा (रजि.) ने अबू जहल की इस हरकत को अपने परिवार का अपमान समझा। वे (रजि.) सीधे अबू जहल के पास पहुंचे और एक भी शब्द कहे बिना अपनी कमान से मार-पीटकर अबू जहल को घायल कर दिया और एलान किया, “तुम्हारे अत्याचार के कारण मैंने इस्लाम स्वीकार कर लिया है।”

हज़रत उमर फारूक (रजि.) के इस्लाम स्वीकार करने की घटना अपनी तरह की अनोखी घटना है । उस समय वे 30 वर्ष के होने वाले थे और अपनी पसन्द-नापसन्द के मामले में अतिवादी थे । इस तथ्य से अवगत हुए बिना कि इस्लाम क्या है और उसका उद्देश्य क्या है, वे मुसलमानों पर सख्ती करने में बहुत आगे थे, फिर चाहे वे उनके अपने परिवार के लोग हों या परिवार से बाहर के । एक दिन उन्होंने पक्का इरादा कर लिया कि वे नबी (Prophet Muhammad SAW) की हत्या कर देंगे, ताकि इस समस्या की मूल जड़ ही को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाए । उन्होंने अपने हथियार उठाये और अल्लाह के प्यारे नबी (Prophet Muhammad SAW की तलाश में निकल खड़े हुए। रास्ते में उन्हें उनका एक रिश्तेदार (हज़रत नईम बिन अब्दुल्लाह) मिला, जिसे उन्होंने अपना संकल्प बताया । उनका यह रिश्तेदार गुप्त रूप से इस्लाम में दाखिल हो चुका था । वह इस बात से भली-भांति अवगत था कि उमर के साथ बहस करना असंभव है। जब वे किसी काम का निश्चय कर लेते हैं तो उसे अवश्य ही कर डालते हैं। इसलिए उसने कहा, “ऐ उमर, तुम मुहम्मद के कबीले से जंग शुरू करने से पहले अपने घर की तो ख़बर लो । तुम्हारे बहन और बहनोई (जीजा) दोनों मुसलमान हो चुके हैं।”

इस अप्रत्याशित सूचना ने हजरत उमर (रजि.) के गुस्से को और भड़का दिया । वे सब कुछ भूल गये और सीधे अपनी बहन हज़रत फ़ातिमा बिन्त ख़त्ताब (रजि.) के घर पहुंचे । दरवाजे पर उन्होंने अन्दर से कुरआन पढ़ने की आवाज सुनी जो कि उन्हें मिलने वाली सूचना का स्पष्ट प्रमाण था । उन्होंने इतनी जोर से दरवाजा खटखटाया कि घर के अन्दर मौजूद तमाम लोग भयभीत हो गये । कुरआन पढ़ाने वाले खब्बाब बिन अरत (रजि.) को जल्दी से घर में किसी जगह छिपा दिया गया और हज़रत उमर (रजि.) के बहनोई हज़रत सईद बिन जैद (रजि.) ने दरवाजा खोला । हजरत उमर (रजि.) ने गुस्से से पूछा, “मुझे बताओ कि तुम क्या पढ़ रहे थे ।” जवाब दिया गया कि हम तो कुछ भी नहीं पढ़ रहे थे, हम तो केवल बातें कर रहे थे।

इस जवाब से हज़रत उमर (रजि.) का गुस्सा और बढ़ गया । उन्होंने अपने बहनोई को पीटा । अपने पति को बचाने के लिए फातिमा बिन्ते ख़त्ताब (रजि.) आगे बढ़ी तो न चाहते हुए खुद भी हज़रत उमर (रजि.) की पिटाई की चपेट में आकर घायल हो गयीं । हजरत उमर (रजि.) मक्का के प्रतिष्ठत लोगों में से थे और वे किसी महिला पर हाथ नहीं उठाते थे फिर अपनी बहन पर कैसे उठा सकते थे? उन्हें इसका बहुत दुख हुआ । उसी समय बहन ने उन्हें एक भावनात्मक चोट लगायी । उन्होंने घायल शेरनी की तरह दहाड़ते हुए कहा, “हां, हम इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं। तुम जो चाहो कर लो।”

यह सुनकर हज़रत उमर (रजि.) का सारा गुस्सा झाग की तरह बैठ गया । वे नर्म लहजे में बोले, “मुझे वे पन्ने दिखाओ जिन्हें तुम पढ़ रहे थे ।” उनकी बहन अभी तक गुस्से में थीं । वे बोली, “तुम अधर्मी हो, नापाक हो, इसलिए तुम इस हालत में पवित्र पन्नों को नहीं छू सकते ।” हज़रत उमर (रजि.) ने कहा, “मैं अब तुम्हारे दीन का दुश्मन नहीं रहा । तुम मुझे बताओ कि इन पन्नों को कैसे छुआ जा सकता है ?” इस पर बहन ने कहा, “जाओ पहले नहाधोकर अपने जिस्म को पाक कर लो ।” हजरत उमर (रजि.) ने अपनी बहन के निर्देश का तुरन्त पालन किया । जब वे स्नानगृह से निकले तो बहन ने उन्हें कुरआन के कुछ पन्ने दिये । उनके अध्ययन से वे कुरआन के सन्देश से इतने प्रभावित हुए कि पुकार उठे, “तुम लोग इस्लाम स्वीकार करने के लिए क्या करते हो।”

इस मौके पर कुरआन पढ़ाने वाले शिक्षक खब्वाय बिन अरत (रजि.) जो डर के कारण अन्दर ही छिपे हुए थे, बाहर निकल आये । उन्होंने उमर (रजि.) को बताया कि “एक या दो दिन पहले अल्लाह के आखिरी नबी (सल्ल.) ने अल्लाह से दुआ की थी कि अबू जहल या उमर को इस्लाम में दाखिल करके उनकी मदद कर । मुझे यकीन है कि तुम अल्लाह के रसूल (Prophet Muhammad SAW की उसी दुआ का बेहतरीन इनाम हो । मेरे साथ आओ । मैं तुम्हें अल्लाह के रसूल के पास ले चलता हूं।”

उस समय आप (Prophet Muhammad SAW) अपने एक सहावी हज़रत अरकम (रजि.) के घर में मौजूद थे । जब लोगों ने हजरत अरकम (रजि.) के घर के दरवाजे पर उमर (रजि.) की आवाज़ सुनी तो वे बहुत डर गये, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फरमाया, “डरो नहीं, तुम ज़्यादा तादाद में हो जबकि वह अकेला है।”

जब उमर फ़ारूक़ (रजि.) अन्दर आये तो आप (Prophet Muhammad SAW) ने उनसे बड़े जोशीले अन्दाज़ में हाथ मिलाया और कहा, “ऐ उमर ! तुम कब तक गलत रास्ते पर चलते रहोगे?” इसके जवाब में हज़रत उमर (रजि.) ने जोरदार

आवाज़ में मुसलमान होने का इक़रार किया । यह इकरार इतना अप्रत्याशित था कि वहां पर मौजूद मुसलमानों के जमघट ने अनायास ‘अल्लाहु अकबर’ का नारा लगाया । करीबी घरों के निवासी चकित हो गये कि हज़रत अरकम के खामोशी वाले घर में क्या हुआ है।

इस्लाम स्वीकार करने के बाद हज़रत उमर (रजि.) ने प्रस्ताव रखा कि “बहुदेववादी तो खुलेआम मूर्तिपूजा करते हैं। हम छिपकर अल्लाह की बन्दगी क्यों करें ।” अतः तुरन्त ही मुसलमानों का जुलूस हज़रत उमर (रजि.) के नेतृत्व में काबा के परिसर में पहुंचा और वहां नमाज अदा की। हजरत उमर फारूक़ (रजि.) की उपस्थिति ही किसी प्रकार की अप्रिय प्रतिक्रिया को रोकने के लिए काफी थी। नमाज के बाद मुसलमानों का समूह खामोशी से वापस आ गया।

लेखक : डॉ. मुहम्मद हमीदुल्लाह 


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