Islamic Marriage Part 20 : इस्लाम में निकाह का महत्व और आसान तरीक़ा



(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम)

प्रिय पाठकों, अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! अब हम आपकी खि़दमत में पेश कर रहे हैं मानव जीवन के तीसरे दौर में जिन्सी बुराइयों और गन्दिगी से पाक व साफ़ रखने के दस आदेशों में से आदेश नं0 8, 9 और 10, जिसमें आप लोगों को निकाह का हुक्म और निकाह का विकल्प से अवगत कराया गया है साथ ही नफ़्स के सुधार और पाकीज़गी के ताल्लुक़ से क़ुरआन और सुन्नत की रोशनी में उल्लेख किया गया है।

आदेश नं0 8: निकाह का हुक्म

व्यक्ति के नफ़्स के सुधार और पाकी की विभिन्न तदबीरें अपनाने के साथ इस्लाम निकाह करने का हुक्म भी देता है जो कि न केवल पारिवारिक व्यवस्था की शक्तिशाली और सुदृढ़ बुनियाद बनता है बल्कि इन्सान के अन्दर शर्म व लज्जा और सतीत्व की भावना भी पैदा करता है। अल्लाह के नबी सल्ल0 का इरशाद है-

‘‘निकाह आंखों को नीचा करता है और शर्मगाह को बचाता है।’’ (मुस्लिम)

और आप सल्ल0 ने इरशाद फ़रमारया-

‘‘निकाह आधा दीन है।’’ (बैहक़ी)

निकाह के महत्व को देखते हुए इस्लाम ने निकाह का तरीक़ा बड़ा सरल व सहज रखा है न मेहर की हद न दहेज की पाबन्दी न बारात का झंझट न ज़बान, रंग व नस्ल, क़ौम, क़बीला की क़ैद, बस केवल मुसलमान होने की शर्त है।

हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ि0 ने मदीना में शादी की और नबी सल्ल0 को पता तक न चला। आपने अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ि0 के कपड़ों पर जाफ़रान का रंग देखकर पूछा- ‘‘यह क्या है?’’ हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ ने कहा- ‘‘मैंने अन्सार की एक औरत से निकाह किया है।’’ (बुख़ारी)

हज़रत जाबिर रज़ि0 ने एक जंगी मुहिम से वापसी पर नबी अकरम सल्ल0 को बताया- ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल! मैंने नयी नयी शादी की है।’’ पूछा- ‘‘कुंवारी से या विधवा से?’’ हज़रत जाबिर रज़ि0 ने बताया- ‘‘विधवा से।’’ आपने फ़रमाया- ‘‘कुंवारी से शादी क्यों न की? वह तुझसे खेलती तू उससे खेलता।’’ (मुस्लिम)

मतलब यह कि न तो सहाबा किराम रज़ि0 अपने निकाह की समय रहते ख़बर देना नबी सल्ल0 को ज़रूरी समझते थे न नबी सल्ल0 ने भी इस बात पर अपनी नाराज़गी प्रकट की कि मुझे दावत क्यों नहीं दी गयी?

एक सहाबी के पास निकाह के लिए कुछ भी नहीं था कि मेहर में देने के लिए लोहे की अंगूठी भी उपलब्ध नहीं थी। आपने उसका निकाह क़ुरआन की आयतों पर ही कर दिया। (बुख़ारी)

न मेहर न दहेज़ न बारात, इन तमाम सुविधाओं के बावजूद यदि कोई निकाह न करे तो उसके बारे में इरशाद मुकारब है-

‘‘वह मुझसे नहीं।’’ (मुस्लिम)

आदेश नं0 9: रोज़ा – निकाह का विकल्प

जब तक निकाह के लिए हालात ठीक न हों उस समय तक रसूले अकरम सल्ल0 ने (यथा सामर्थ) रोज़े रखने का हुक्म दिया है। क़ुरआन मजीद में अल्लाह ने रोज़े का उद्देश्य बयान करते हुए यह बताया है-

‘‘ताकि तुम लोग परहेज़गार बन जाओ।’’ (सूरह बक़रा)

नबी सल्ल0 ने भी रोज़े का उद्देश्य बयान करते हुए इरशाद फ़रमाया है-

‘‘रोज़ा खाने पीने से रूकने का नाम नहीं बल्कि बेकार के और गन्दे कामों से रूकने का नाम है।’’ (इब्ने ख़ज़ीमा)

जिसका मतलब यह है कि रोज़ा एक ऐसी इबादत है जो इन्सान के अन्दर मौजूद वासना संबंधी ओर हैवानी भावनाओं को सख़्ती से ख़त्म कर देता है। अतएव नबी सल्ल0 का इरशाद है-

‘‘नमाज़ बुराई और अश्लील कामों से रोकती है।’’ (सूरह अन्कबूत 45)

नमजा़ के इन लाभों के साथ रोज़ा के हुक्म की वृद्धि मानो इन्सान को जिन्सी बिखराव से सुरक्षित रखने के लिए दोहरी मदद देता है।

आदेश नं0 10: अंतिम रास्ता

नफ़्स के सुधार एवं पाकीज़गी की सारी बाहरी और आन्तरिक तदबीरों के बावजूद यदि कोई व्यक्ति अपनी वासना संबंधी भावनाओं को कन्ट्रोल नहीं करता और वह कुछ कर गुज़रता है जिसे इस्लाम हर सूरत में रोकना चाहता है अर्थात ज़िना, तो इसका मतलब यह है कि वह मर्द या औरत इस्लामी समाज में रहने के योग्य नहीं। उन पर मानवता की बजाए जानवरपन छाया हुआ है। ऐसे अपराधियों को सीधे रास्ते पर लाने के लिए इस्लाम ने अन्तिम रास्ता के तौर पर लोगों की भीड़ के सामने बिना किसी रिआयत सौ कोड़े मारने का आदेश दिया है।

अल्लाह का इरशाद है-

‘‘ज़िना करने वाली औरत और ज़िना करने वाले मर्द दोनों में से हरेक को सौ कोड़े मारो और अल्लाह के क़ानून के लागू करते समय तुम्हे उनपर दया नहीं आनी चाहिए यदि तुम वास्तव में अल्लाह और आखि़रत के दिन पर ईमान रखते हो और जब उनको सज़ा दी जाए तो मुसलमानों में से एक जमाअत उनको देखने के लिए मौजूद रहे।’’ (सूरह नूर-1)

ज़िना के अलावा किसी बे गुनाह औरत पर ज़िना का आरोप लगाने वाले के लिए भी शरीअत ने अस्सी कोड़ों की सज़ा मुक़र्रर की है जिसे हदे क़ज़फ़ कहा जाता है। ऐसे अवज्ञाकारी दुष्ट स्वभाव लोगों को और अधिक अपमानित करने के लिए यह हुक्म भी दिया गया है कि आगे उनकी किसी भी मामले में गवाही न मानी जाए।

अल्लाह का इरशाद है-

‘‘और जो लोग पाक दामन औरतों पर (बदकारी का) आरोप लगाएं और फिर चार गवाह पेश न करें उन्हें अस्सी कोड़े मारो और आगे कभी उनकी गवाही क़ुबूल न करो। ऐसे लोग स्वयं ही बदकार हैं।’’ (सूरह नू-1)

स्पष्टीकरण – निकाह के बाद ज़िना की सज़ा संगसार करना है जिसका ज़िक्र अगले लेख में आएग इन्शाअल्लाह।

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