Asli Ahle Sunnat Kaun? Part 07 : मुक़ल्लिदीन और ग़ैर मुक़ल्लिदीन में फ़र्क़, असली अहले सुन्नत कौन?



Asli Ahle Sunnat Kaun Part 07 : मुहक़्क़िक़ Researcher के क़लम से ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले (Ahle Sunnat) सुन्नत कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैंतो आइए अब जानते हैं कि असली अहले सुन्नत Ahle Sunnat कौन हैं?

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘ह ’ से मुराद हनफी है और ‘म ’ से मुराद मुहम्मदी है।

 ह – तक़लीद में नाक कटवाने वाली कौन सी बात है?

म – जब तक़लीद के मायने ही गले में पट्टा डालना है तो इंसान होकर जानवारों की तरह से किसी का पट्टा डालना नाक कटवाना नहीं तो और क्या है, इस से बड़ी ज़िल्लत व बेइज़्ज़ती और क्या हो सकती है?

ह – हम तो तक़लीद इमाम-ए-आज़म की करते हैं। इतने बड़े इमाम की तक़लीद क्या ऐब व बेइज़्ज़ती है।

म – जब तक़लीद में इंसानियत की तौहीन है तो ये किसी की भी हो, नबी की हो या इमाम की, तक़लीदी पट्टा सोने का हो या चाँदी का, इमाम-ए-आज़म का हो या इमाम-ए-असग़र का, जो भी पहनेगा उसके लिए ज़िल्लत ही ज़िल्लत है। इंसान के लायक़ तो यही है कि सोच समझ कर किसी की बात माने। जानवर बन कर किसी का क़िलादा (पट्टा) गले में न डाले, इस्लाम इंसानियत को बुलन्द करने आया है न कि उसको जानवर बनाकर पस्त और ज़लील करे, ऐसी तक़लीद पैग़म्बर की भी नहीं होती।

ह – ये तो एक बात है वरना गले में किसी का पट्टा कौन डालता है।

म – यही बात तो ठीक नहीं।

ह – तक़लीद का तो लफ़्ज़ ही बोलते हैं वरना अमलन तो तक़लीद कोई नहीं करता कि सचमुच किसी के नाम का पट्टा गले में डाले।

म – माँ, बहन की गाली देने वाला भी तो गाली के लफ़्ज़ ही बोलता है अमलन तो वो भी कुछ नहीं करता फिर गाली इतनी बुरी क्यों लगती है?ह – गाली का तसव्वुर ही बहुत बुरा है।

म – तसव्वुर तो तक़लीद का भी बहुत बुरा है, अच्छे भले इंसान के गले में जानवर की तरह रस्सा पड़ा हुआ हो और उसे ले जाया जा रहा हो, क्या ये तसव्वुर अच्छा है?

ह – गाली में तो बड़ी बेइज़्ज़ती है।

म – समझते तो बड़ी बेइज़्ज़ती है लेकिन अगर मुक़ल्लिद की तरह न समझे तो क्या बेइज़्ज़ती है।

ह – लेकिन तक़लीद तो अक़ीदत के इज़हार के लिए होती है।

म – अक़ीदत के इज़हार के लिए ही सही, लेकिन इसमें इंसानियत की तो तज़लील है कि इंसान जानवर बन जाता है।

ह – इसमें ज़िल्लत का एहसास तो नहीं होता।

म – ज़िल्लत का एहसास तो अक़ीदत की वजह से नहीं होता। वरना तक़लीद फेल तो ज़िल्लत का है जहाँ अक़ीदत न हो वहाँ तक़लीद करके देख लें ज़िल्लत है या नहीं, अगर अक़ीदत हो तो गाली भी बुरी नहीं लगती, हम ने अक़ीदत मंदों को मजज़ूबों की गालियाँ सुनकर ख़ुश होते देखा है। सगे दरबार अली जैसा ज़लील तरीन नाम लोग अक़ीतद के तहत ही रखते हैं वरना किसी का कुत्ता कौन बनता है? मुश्रिक शिर्क करता है ग़ैरूल्लाह के आगे सर ब-सुजूद होता है, इंतिहाई ज़िल्लत की सूरतें इख़्तियार करता है लेकिन उसे ज़िल्लत का ज़रा भी एहसास नहीं होता। क्योंकि वो अक़ीदत में अंधा होता है और ये अंधापन ही है जो आदमी से तक़लीद और शिर्क जैसे ज़िल्लत के काम करवाता है। इसी लिए हम कहते हैं कि मुक़ल्लित ख़्वाह कितना ही मुवह्हिद क्यों न बने वो मुश्रिक ज़रूर होता है। -क़ुरआन मजीद सूरह यूसुफ-12 की आयत नं0 106 बताती है कि ‘‘दुनिया में अक्सरियत ऐसे लोगों की है जो अल्लाह पर ईमान लाने के बावजूद मुश्रिक हैं’’ ज़ाहिर है कि ऐसे लोग मुक़ल्लिद ही हो सकते हैं क्यों कि अक्सरियत दुनिया में इनकी है, ग़ैर मुक़ल्लिदीन तो आटे में नमक के बराबर हैं मुक़ल्लिदीन और ग़ैर मुक़ल्लिदीन में फ़र्क़ तक़लीद ही है और अक्सर लोग ऐसे हैं जो इस लानत से बचे हुए हैं लिहाज़ा यही एक चीज़ है जो अक्सरियत को मुश्रिक बनाये हुए है।

ह – आपने तो ग़ज़ब कर दिया जो तक़लीद को भी शिर्क बना दिया। हालांकि तक़लीद का शिर्क से क्या ताल्लुक़?

म – आप समझे नहीं तक़लीद और शिर्क का तो चोली-दामन का साथ है। शिर्क उगता ही तक़लीद की सर ज़मीन में है, हर मुश्रिक पहले मुक़ल्लिद होता है फिर मुश्रिक, अगर तक़लीद न हो तो शिर्क कभी पैदा न हो, शिर्क पैदा ही तक़लीद से होता है शिर्क को अपनी पैदाइश के लिए जिस ज़मीन और फ़िज़ा की ज़रूरत है वो तक़लीद ही मुहैया कर सकती है। तक़लीद हमेशा जाहिल और बेअक़्ल करता है और शिर्क भी वहीं पाया जाता है जहाँ जिहालत और बेअक़्ली हो, इन दोनों के लिए ऐसी फ़िज़ा की ज़रूरत है जहाँ अक़्ल का फुक़दान और अंधी अक़ीदत को ज़ोर हो, इन दोनों की बुनियाद किसी को हद से ज़्यादा बड़ा और उसके मुक़ाबले में अपने आपको छोटे से छोटा समझने पर है और यही इबादत का मफ़हूम है, इबादत कहते हैं दूसरों को बड़े से बड़ा जानकर अपने आपको उसके मुक़ाबले में छोटे से छोटा समझना, यही कुछ मुक़ल्लिद अपने इमाम से करता है वो अपने इमाम को इतना बड़ा समझता है कि ख़ुद को उसके सामने जानवर समझता है। और जानवरों की तरह से उनका क़िलादा गले में डालने को अपनी सआदत ख़्याल करता है फिर आहिस्ता आहिस्ता उसको अल्लाह का शरीक ठहरा लेता है।

ह – अल्लाह का शरीक कैसे?

म – इस तरह कि उसकी बात को ख़ुदाई हुक्म समझता है।

ह – ये शिर्क और शरीक ठहराना कैसे हो गया?

म – अल्लाह का हक़ अपने इमाम को जो दिया, क़ुरआन मजीद सूरह शूरा-42 आयत नम्बर 21 में है ‘‘क्या उन मुश्रिकों ने ऐसे शरीक बना रखे हैं जो उनके लिए दीन में ऐसे मसाइल बनाते है जिनकी मंज़ूरी अल्लाह ने नहीं दी’’ इस आयत में जिसके क़ौल व क़यास को दीन समझा जाये उसको अल्लाह ने अपना शरीक क़रार दिया है, अल्लाह के इज़्न के बग़ैर नबी की बात दीन नहीं हो सकती है चाहे आलिमों की आरा को दीन बनाया जाये, लेकिन मुक़ल्लिद अपने इमाम की बात को दीन समझता है। गोया हक़्क़े तशरीअ अल्लाह का था वो अपने इमाम को देता है। सूरह तौबा-9 की आयत नम्बर 31 में है अल्लाह ने साफ फरमा दिया कि यहूद व नसारा जब बिगड़े जैसाकि आज के मुसलमान बिगड़े हुए हैं तो ‘‘उन्होंने अपने उलमा और मशाइख़ को रब बना लिया’’ अदी बिन हातिम जब मुसलमान हुए तो उन्होंन पूछा ‘‘या रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) हमने तो अपने उलमा व मशाइख़ को रब नहीं बनाया था, आपने फरमाया कि तुम उनके हलाल करदा को हलाल और हराम करदा को हराम नहीं समझते थे, यानी उनकी तज्वीज़ों को दीन नहीं बना लेते थे। उन्हों ने कहा कि ये बात तो थी, आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) फरमाया यही तो रब बनाना है।

वस्सलामु अलइकुम व रह म तुल्लाहि व ब र कातुहू!

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