Asli Ahle Sunnat Kaun? Part 05 : आप अहले हदीस क्यों हैं?, असली अहले सुन्नत कौन?



Asli Ahle Sunnat Kaun Part 05 : मुहक़्क़िक़ Researcher के क़लम से ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले (Ahle Sunnat) सुन्नत कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैंतो आइए अब जानते हैं कि असली अहले सुन्नत Ahle Sunnat कौन हैं?

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘ह ’ से मुराद हनफी है और ‘म ’ से मुराद मुहम्मदी है।

ह – आप अहले हदीस क्यों हैं?

म – ताकि हनफी अहले सुन्नत और असली अहले सुन्नत में फर्क़ हो जाये। 

  • असली अहले सुन्नत वो होता है जो सिर्फ सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का पाबन्द हो, किसी इमाम का मुक़ल्लिद न हो, वो सुन्नत उसे समझता है जो सहीह हदीसे रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) से साबित हो उसके नज़दीक हदीसे रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की सुन्नत का मैयार है इसी लिए उसे अहले हदीस कहते हैं। जब “इस्लाम” सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का नाम है और सुन्नते रसूल, बग़ैर हदीसे रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के मिल ही नहीं सकती तो अहले सुन्नत, बग़ैर अहले हदीस बने हो ही नहीं सकता। 
  • हनफी अहले सुन्नत वो है जो शिया के मुक़ाबले में तो अहले सुन्नत वल जमाअत कहलाता है। क्योंकि ये सुन्नत और जमाअते सहाबा को मानने का दावेदार है और मुनकिर है। लेकिन अमलन ये अहले सुन्नत नहीं होता बल्कि हनफी होता है क्योंकि इमाम अबू हनीफा (रह0) की तक़लीद करता है। और अहले सुन्नत की तारीफ में किसी इमाम की तक़लीद करना बिल्कुल शामिल नहीं। अहले सुन्नत उसके कहते हैं जो सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) पर चले और हनफी उसे कहते है। जो इमाम अबू हनीफा (रह0) की तक़लीद करे और फिक़ह हनफी पर चले, अब इन दोनों यानी हनफी और अहले सुन्नत को साबित करने के लिए सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) और फिक़ह हनफी को एक साबित करना ज़रूरी है जो तक़रीबन नामुमकिन है जब सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) और फिक़ह हनफी एक साबित नहीं हो सकते तो अहले सुन्नत और हनफी भी एक साबित नहीं हो सकते इनमें फर्क़ ज़रूर रहेगा।

ह – मैं समझता हूँ, फर्क़ तो उनमें ख़ास कोई नहीं।

म – फर्क़ तो अहले सुन्नत और अहले हदीस में भी नहीं दोनों एक हैं क्योंकि सुन्नत भी रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की और हदीस भी रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की। हनफी और अहले सुन्नत में तो फर्क़ है।

ह – क्या फर्क़ है?

म – यही कि हनफियत उम्मतियों की बनायी हुई है और सुन्नत नबी की, जो फर्क़ नबी और उम्मती में है वही फर्क़ हनफी और अहले सुन्नत में है। हनफी अहले सुन्नत वो है जिसकी क़ौमियत तो अहले सुन्नत है लेकिन उसका गोत यानी अगला ख़ादना हनफी है जिसकी निस्बत से अब वो अपने आपको हनफी कहता है और फख़्र महसूस करता है। हनफी क़दीमी आबा व अजदाद की वजह से तो अहले सुन्नत कहलाता है लकिन इंतिसाबे जदीद की वजह से हनफी यानी अस्ल व नस्ल के ऐतिबार से तो वो अहले सुन्नत है लेकिन अपने कस्ब के लिहाज़ से हनफी है।

ज़ाहिर है कि मज़हब कोई नस्ली क़िस्म की चीज़ नहीं कि बाप के बाद बेटे का भी वही हो, मज़हब तो अपना कस्ब है। अपनी पसन्द है जो आपके अक़ायद व आमाल हैं वही आपका मज़हब है, कोई आदमी इस वजह से अहले सुन्नत नहीं कहला सकता कि उसके बुज़ुर्ग अहले सुन्नत थे। अहले सुन्नत तो वही हो सकता है जो ख़ुद अहले सुन्नत हो, यानी सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) पर चले।

अहले सुन्नत वो नहीं हो सकता जो ख़ुद तो बिदतें करे, हनफियत और बरेलवियत को अपनाये और ‘‘पिदरम सुल्तान बोद’’ यानी अपने बाप-दादा की वजह से अहले सुन्नत कहलाये। अहले सुन्नत “मज़हब” है “क़ौम” नहीं, मज़हब बदलता रहता है क़ौम बदलती नहीं, मज़हब का ताल्लुक़ अक़ायद व अमल से होगा, जो आपका अक़ीदा व अमल होगा वही आपका मज़हब होगा, अगर अमल सुन्नत पर है तो मज़हब अहले सुन्नत है, अगर अमल किसी पीर फक़ीर, इमाम, वली की पैरवी है तो मज़हब उसी का है जिसकी पैरवी है। हनफी बरेलवी का अपने आपको अहले सुन्नत कहना ऐसा है जैसा कि आज कल के अक्सर मुसलमानों का अपने आपको मुसलमान कहना वो इस्लाम की हक़ीक़त से बिल्कुल वाक़िफ नहीं। इसके बावजूद वो अपने आपको मुलसमान कहते हैं सिर्फ इस वजह से कि उनके नज़दीक मुसलमान सिर्फ एक क़ौम है जो कभी बदलती नहीं। वो इस्लाम के मुनाफी जो कुछ अपनी मर्जी से करते रहें उनकी मुसलमानी में फर्क़ नहीं आता। आज कल कितने मुसलमान हैं कि मौरूसी (बाप-दादा का) मज़हब उनका इस्लाम है लेकिन ज़ाती मज़हब उनका सोशलिज़्म है और वो अपने आप को सोशलिस्ट मुसलमान कहते हैं हालांकि इस्लाम का कोई ऐडीशन या कोई क़िस्म अज़ क़िस्म सोशलिज़्म व जमहूरियत नहीं।

जैसा कि शाफियत व हनफियत भी इस्लाम की क़िस्में नहीं, सोशलिज़्म हो या जमहूरियत, हनफियत हो या शाफियत, देवबन्दियत हो यो बरेलवियत, ये सब इस्लाम में इज़ाफे हैं जिनका इस्लाम बिल्कुल मुतहम्मिल नहीं। इस्लाम एक दूध है जो ना अज़मों की पलीद मिलावट का रवादार है, न इमामों की पाक आमीज़श (मिलावट) का। दूध में पाक पानी मिले या पलीद, दूध ख़ालिस नहीं रहता। दूध उस वक़्त तक दूध है जब तक वो ख़ालिस है, ज्यूँ ही उसमें कोई मिलावट हुई, पाक या पलीद वो मिलावटी हो गया। इसी तरह अहले सुन्नत का ख़ालिसे इस्लाम है, उसकी वक़्त तक अहले सुन्नत है जब तक वो सिर्फ अहले सुन्नत है, ज्यूँ ही वो हनफी, बरेलवी या किसी और क़िस्म का अहले सुन्नत बना मिलावटी हो गया, असली न रहा और अल्लाह बग़ैर असली के कभी क़ुबूल नहीं करता।  

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