Asli Ahle Sunnat Kaun? Part 06 : हनफ़ियत बरेलवियत और अहले हदीस़ की हक़ीक़त, असली अहले सुन्नत कौन? : Interesting Discussion


Asli Ahle Sunnat Kaun Part 06 : मुहक़्क़िक़ Researcher के क़लम से ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले (Ahle Sunnat) सुन्नत कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैंतो आइए अब जानते हैं कि असली अहले सुन्नत Ahle Sunnat कौन हैं?

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘ह ’ से मुराद हनफी है और ‘म ’ से मुराद मुहम्मदी है।

ह – आपकी जो मर्ज़ी हो कहें अवाम तो हनफियों ख़ासकर बरेलवियों को ही अहले सुन्नत मानते हैं?

म – अवाम को नहीं देखा करते, अवाम तो कल-अनआम होते हैं, देखा तो हक़ीक़त को करते हैं कि हनफी बरेलवी की हक़ीक़त क्या है और अहले सुन्नत की क्या? अहले सुन्नत की हक़ीक़त ये है कि वो सुन्नते रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का पाबन्द हो, बिदआत के क़रीब न जाये। हनफी बरेलवी वो है जो हनफियत और बरेलवियत का पाबन्द हो जो बज़ाते ख़ुद बिदअतें हैं। अब जिसकी ज़ात ही बिदअत हो वो अहले सुन्नत कैसे हो सकता है। रह गया अवाम का कहना या ख़ुद उनका अहले सुन्नत कहलाना तो ये उरफन है, उरफ के लिए ज़रूरी नहीं कि वो हक़ीक़त भी हो। “उरफ” आम में तो हर कलमा गो को मुसलमान कह देते हैं और हर दाढ़ी वाले को सूफी और मौलवी, मुश्रिक हो यो मुवह्हिद, सुन्नी हो या शिया, ज़रूरियाते दीन का क़ायल हो या मुन्किर, हत्ता कि मिर्ज़ाई भी आज तक उरफे आम में मुसलमान ही शुमार होते रहे हैं तो क्या ये हक़ीक़त है कि वाक़ई हर कलमा गो मुसलमान होता है ख़्वाह उसके अक़ायद व आमाल कुछ ही हों। अगर ये सहीह है तो मिर्ज़ाई काफिर क्यों? क्या उनका वही कलमा नहीं जो सब मुसलमान पढ़ते हैं।

जब अक़ीदे की ख़राबी से मिर्ज़ाई मुसलमान नहीं रह सकता तो शिर्क व बिदअत करने वाला अहले सुन्नत कैसे हो सकता है। हनफी बरेलवी जो अहले सुन्नत मशहूर हैं तो वो सिर्फ शिया की वजह से, क्योंकि शिया के सब ही अहले सुन्नत हैं। बरेलवियों की चूँकि अक्सरियत है इस लिए वो इस नाम से ज़्यादा मशहूर हैं लेकिन शिया के अहले सुन्नत कहने से बरेलवी अहले सुन्नत नहीं हो सकते। कोई चीज़ क्या है इसके लिए उसकी हक़ीक़त को देखा जाता है न कि अवाम कल-अनआम को कि वो क्या कहते हैं। ह – बरेलवी सिर्फ शिया के कहने से ही अहले सुन्नत नहीं, अहले सुन्नत होने के तो वो ख़ुद भी ज़बर्दस्त दावेदार हैं।

म – ज़बर्दस्त दावेदार नहीं बल्कि ज़बर्दस्ती दावेदार हैं, सिर्फ दावे से क्या होता है अगर कोई मुंह करे बरेली को और क़िबला कहे काबे को, रास्ते चले कूफे का दावे करे मदीने का तो उसे कौन सच्चा कहेगा। ज़बर्दस्त दावा तो मिर्ज़ाई भी करते हैं क्या वो मिर्ज़ाई रहते हुए अपने दावे से मुसलमान हो सकते हैं।

ह – आपका भी तो दावा है कि हम अले सुन्नत हैं।

म – दावा ही नहीं बल्कि हक़ीक़त है क्योंकि हम सिर्फ रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की पैरवी करते हैं और उन्हीं को अपना इमाम और हादी और पीर व मर्शिद समझते हैं उनके सिवा किसी की तरफ मंसूब नहीं होते हम भी अहले सुन्नत न होते। अगर आपकी तरह किसी इमाम के मुक़ल्लिद होते और उसके नाम पर अपनी जमाअत का नाम रखते।

ह – आपको भी तो वहाबी कहते हैं।

म – वहाबी तो आप हमें बनाते हैं वरना हम वहाबी कहाँ?

ह – हमें आपको वहाबी बनाने की क्या ज़रूरत?

म – ताकि एक हम्माम में सारे ही नंगे हों यानी सारे ही मुकल्लिद हों और एक दूसरे को ताने न दे सकें।

ह – मुक़ल्लिद होना भी कोई ताना है?

म – ज़बर्दस्त! लेकिन अगर कोई समझे तो!

ह – ताना कैसे?

म – मुक़ल्लिद तो इंसान को जानवर कहने के मुतारादिफ है क्योंकि तक़लीद जानवर के गले में पट्टा डालने को कहते हैं।

ह – पट्टा भी तो एक इम्तियाज़ होता है, ये भी हर एक के गले में तो नहीं डाला जाता ख़ास-ख़ासके ही डाला जाता है, बाज़ दफा जिसके गले में पट्टा नहीं होता उसको गोली मार देते हैं।

म – ये इम्तियाज़ तो कुत्तों के लिए है कि जिसके गले में पट्टा नहीं होता उसको गोली मार देते हैं और जिसके गले में होता है उसको गोली नहीं मारते तभी तो हम ये कहते हैं कि पट्टे का इम्तियाज़ जानवरों के लिए है, इंसानों के लिए नहीं।

ह – मैदाने हश्र में इमामों के नाम पर जो बुलाया जायेगा तो आखि़र कोई पहचान तो होगी।

म – जन्नतियों की पहचान पट्टा नहीं होगी बल्कि चमक होगी हदीस शरीफ में है। ‘‘उसे नूरानी चमक से हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) अपनी उम्मत को पहचानेंगे।

असल में पट्टा इंसान के लिए है ही नहीं, न दुनिया में न जन्नत में, यही वजह है कि अल्लाह और उसका रसूल तक़लीद के लफ्ज़ को इंसानों के लिए कभी नहीं इस्तेमाल करते क्योंकि उनमें इंसानियत की तौहीन है क़ुरआन व हदीस में ये लफ्ज़ सिर्फ जानवरों के लिए आता है इंसान के लिए नहीं आता।

ह – आप तक़लीद के इतने मुख़ालिफ हैं और हमारे मौलवी तक़लीद पर जान दे देते हैं वो फ़खि़्रया अपने आपको मुक़ल्लिद कहते हैं और अहले हदीस को ग़ैर मुक़ल्लिद।

म – ये उनकी बे समझी की दलील है, अगर उन्हें समझ हो तो वो कभी मुक़ल्लिद होने पर ख़ुश न हों, उन्हें तो ये भी पता नहीं कि तक़लीद ऐब है या ख़ूबी, इसमें इज़्ज़त है या ज़िल्लत, मुक़ल्लिदीन का मुक़ल्लिद कहलवाने पर ख़ुश होना ऐसा ही है जैसे कोई मुंह काला करके ख़ान कहलवाये या नाक कटवाकर निकटा कहलवाये। आप सोचें नाक कटवाकर नकटा कहलवाना और नाक वाले को हक़ीर जानना कोई अक़्लमंदी है।    

वस्सलामु अलइकुम व रह म तुल्लाहि व ब र कातुहू!

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