Dua e Qunoot : क़ुनूत-ए-नाज़िला का हुक्म : Virtue & Method

Dua e Qunoot : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम : मेरे अज़ीज़ पाठकोंः (अस्सलामु अलइकुम व रहमतुल्लाह वबरकातुह): नीचे दी गई यू-ट्यूब वीडियो और लेख में सहीहुल अहादीस के हवालों के साथ क़ुनूत-ए-नाज़िला के हुक्म के बारे में बयान किया गया है। आप हज़रात लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें और यू-ट्यूब वीडियो को भी ज़रूर सुनें, इंशा अल्लाह, इससे आपके इल्म में मज़ीद इज़ाफा होगा। अल्लाह तआला से दुआ कि हम सभी को सही इल्म हासिल करने और अमल की तौफीक़ अता फरमाऐ, आमीन! और इस पोस्ट को शेयर करके दूसरों को भी इल्म हासिल करने का मौक़ा फराहम करें। अल्लाह तआला हमारे और आपके इस अमल को सदक़ा-ए-जारिया बनाये, आमीन!

सवाल: क़ुनूत-ए-नाज़िला का क्या मतलब है, ये क्यों और कैसे की जाती है? मुकम्मल वज़ाहत से समझा दें।

जवाब: क़ुनूत-ए-नाज़िला दुआ को कहते हैं और नाज़िला के मायनी मुसीबत में गिरफ्तार होना है। ज़माने के हवादिसात में फंस जाने के वक़्त नमाज़ में अल्लाह तआला से गिरयाविज़ारी करके उन हवादिसात व वक़ाए (जंग वगैरह) से निजात पाने के लिए इल्तिजा व दुआ करना क़ुनूत-ए-नाज़िला कहलाता है।

दुनिया में मसाइब व आलाम कई तरह के होते हैं, मसलन दुनिया के कई खि़त्तों में मुसलमानों पर कुफ्फार व मुशरिकीन और यहूद व नसारा ज़ुल्म व सितम के पहाड़ तोड़ रहे हैं, दिन रात उसको परेशानियों में मुबतला कर रहे हैं, उनको क़ैद व बन्द की सुऊबतों (सख़्तियों) में मुबतला कर देते हैं और कमज़ोर व लाग़र मुसलमान उनके ज़ुल्म व सितम का तख़्ता-ए-मश्क़ बने हुए हैं, तो इन तमाम हालात में क़ुनूत-ए-नाज़िला की जाती है और ये नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम, सहाबा-ए-किराम, ताबईने उज़्ज़ाम, फुक़हा व मुहद्दिसीन और सलफ-ए-स्वालिहीन रहमतुल्लाह अलइहिम का तरीक़ा रहा है। इस दुआ का मक़सद ये होता है कि मुसलमान अपने गुनाहों को इक़रार करते हुए इन्तिहाई तज़ल्लुल और इज्ज़ व इन्किसार के साथ अल्लाह तआला से माफी चाहें और अल्लाह तआला से दुआ करें कि ऐ अल्लाह! हमें इन मसाइब व आलाम से महफूज़ फरमाये, हमारे गुनाहों को बख़्श दे। सय्यदा आईशा रज़िअल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम ने फरमायाः

‘‘मैं क़ुनूत इस लिए करता हूँ ताकि तुम अपने परवरदिगार को पुकारो और उससे अपनी ज़रूरियात के बारे में सवाल करे।’’ (हवाला – मजमअ उज़्ज़वाइद: 2/138)

नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम ने मुसीबत व परेशानी और रंज व ग़म के पेशे नज़र कभी पाँचों नमाज़ों में क़ुनूत की, और कभी बअज़ नमाज़ों में। चुनांचे सय्यदना अबू हुरैरह रज़िअल्लाहु अन्हु फरमाते हैंः

‘‘अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हारे क़रीब वो नमाज़ अदा करूँगा जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम की नमाज़ है।’’ पस सय्युदना अबू हुरैरह रज़िअल्लाहु अन्हु ज़ुहर, इशा और फज्र की नमाज़ में क़ुनूत करते थे और मोमिनों के लिए दुआ करते थे और काफिरों पर लानत करते थे।’’

सय्यदना बरा बिन आज़िब रज़िअल्लाहु अन्हु कहते हैंः

‘रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम सुबह और मग़रिब की नमाज़ में क़ुनूत करते थे।’’ (हवाला – मुस्लिम, किताबुल मसाजिद व मवाज़िउस्सलात: बाब इस्तहबाब अल-क़ुनूत फी जमीउस्सलात इज़ा नज़्ज़लत बिल मुस्लिमीन नाज़िला: 678)

सय्यदना अबू हुरैरह रज़िअल्लाहु अन्हु से रिवायत हैः ‘‘रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम ने नमाज़-ए-इशा में एक माह क़ुनूत की।’’ (अबू दाऊद, किताबुल बित्र: अल-क़ुनूत फिस्सलात: 1442)

सय्यदना इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु अन्हु से रिवायत हैः ‘‘रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम मुतावातिर एक माह ज़ुहर, अस्र, मग़रिब, इशा और सुबह की नमाज़ में जब आख़री रकअत में ‘‘समिअल्लाहु लिमन हमिदह’’ कहते तो क़ुनूत करते और बनू सलीम के चन्द क़बीलों रअल, ज़क्वान और असीया पर बद्दुआ करते और मुक़्तदी आमीन कहते।’’

इन तमाम अहादीस से मालूम हुआ कि  आप सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम मुख़्तलिफ हालात को मद्दे नज़र रखते हुए कभी एक नमाज़ में, कभी दो तीन और कभी पाँचों नमाज़ों में क़ुनूत करते थे। तो हमें भी हालात व वाक़ियात के तक़ाज़ों के मुताबिक़ ऐसा करना चाहिए और ये मामला उस वक़्त तक जारी रहे जब तक दुश्मनों की मुकम्मल सरकूबी नहीं हो जाती और मुसलमानों के मसाइब व आलाम में कमी वाक़ेअ नहीं होती।

सय्यदना अबू हुरैरह रज़िअल्लाहु अन्हु से मर्वी हैः ‘‘नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम ने एक माह तक रूकूअ के बाद क़ुनूत की। अब आप ‘‘समिअल्लाहु लिमन हमिदह’’ करते तो अपनी क़ुनूत में कहतेः ‘‘ऐ अल्लाह! वलीद बिन वलीद को निजात दे ऐ अल्लाह सलमा बिन हिश्शाम को निजात दे ऐ अल्लाह अय्याश बिन अबी रबीआ को निजात दे। ऐ अल्लाह ज़ईफ मोमिनों को निजात दे। ऐ अल्लाह! अपना अज़ाब क़बीला मुज़िर पर सख़्त कर। ऐ अल्लाह! उन पर यूसुफ अलइहिस्सलाम के ज़माने जैसा क़हत डाल दे।’’

सय्यदना अबू हुरैरह रज़िअल्लाहु अन्हु कहते हैंः ‘‘फिर मैंने नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम को देखा कि आप ने दुआ करना छोड़ दी तो मैंने कहा मैं रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम को देखता हूँ कि आप सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम ने उनके लिए दुआ करना छोड़ दिया है, तो लोगों ने कहाः ‘‘तुम देखते नहीं कि जिनके लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम दुआ करते थे वो आ गये हैं (यानी कुफार के ग़लबे से उन्हें निजात मिल गयी है)।’’

मौजूदा हालात में चूँकि मुसलमान कई मुमालिक (मसलन फिलिस्तीन, कश्मीर और अल-जज़ाइर वगै़रह) में सफ्फाक (ज़ालिम) व खूँखार दुश्मन के ज़ुल्म व सितम और जब्र व इस्तिब्दाद (ज़ालिम हुकूमतों) का निशाना बने हुए हैं और कई मुमालिक में मुसलमान सालहा साल से जोरो जफा की चक्की में पिस रहे हैं तो उनकी नुसरत और आला-ए-कलिमतुल्लाह के लिए जब हम जिहाद बिस्सैफ वग़ैरह जैसी तदाबीर के साथ सफ आरा हैं तो हमें क़ुनूत-ए-नाज़िला जैसे मुजर्रिब हथियार से भी काम लेना चाहिए। तमाम मुसलमान अपनी नमाज़ों में रूकूअ के बाद ‘‘समिअल्लाहु लिमन हमिदह’’ कह कर सजदे में जाने से पहले मुजाहिदीन और मज़लूम मुसलमानों के लिए दुआ करें। दुआ करते वक़्त इमाम मुख़्तलिफ दुआऐं पढ़े जबकि पीछे मुक़तदी आमीन कहें। क़ुनूत-ए-नाज़िला से मक़सूद मज़लूम व मक़हूर मुसलमानों की नुसरत व कामयाबी और सफ्फाक व जाबिरे दुश्मन की हलाकत व बर्बादी है। इस लिए इस मक़सूद की दुआ भी पढ़ा करे वो मांगी जा सकती है।

इमाम नूदी रहमतुल्लाह अलैह रक़म तराज़ हैंः

‘‘सही बात ये है कि इस बारे में कोई मख़सूस दुआ मुतइयन नहीं बल्कि इर उन दुआ को पढ़ा जा सकता है जिस से ये मक़सूद हासिल हो और ‘‘अल्लाहुम्मह दिनी फीमन हदैत……आखि़र तक’’ पढ़ना मुसतहब है शर्त नहीं।’’ (शरह मुस्लिम: 1/237)

याद रहे कि ऊला और बेहतर ये है कि ये मज़कूर दुआ भी पढ़ी जाए और इसके बाद वो दुआऐं भी पढ़ी जाऐं जो इस मायनी की क़ुरआन मजीद और हदीसे नब्वी में मौजूद हैं। मुख़्तलिफ दुआऐं सहाबा-ए-किराम रज़िअल्लाहु अन्हुम और सलफ-ए-स्वालिहीन रहमतुल्लाह अलइहिम से साबित हैं जैसा कि सय्यदना अबी बिन कअब रज़िअल्लाहु अन्हु जब रमज़ानुल मुबारक में तराबीह पढ़ाते तो हंगामी हालात के पेशे नज़र मुख़ालिफीने इस्लाम के लिए बद्दुआ करते फिर नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम पर दुरूद और मुसलमानों के लिए इस्तिग़फार करते थे।

एक रिवायत में ये अल्फाज़ हैं- ‘‘निस्फ रमज़ान में काफिरों पर लानत करते और कहतेः ‘‘ऐ अल्लाह! उन काफिरों को जो तेरे रास्ते से रोकते हैं और तेरे रसूलों की तकज़ीब करते हैं और तेरे वादों पर ईमान नहीं लाते, तबाह कर दे और उनके कलिमात में मुख़ालिफत डाल दे और उनके दिलों में रूअब डाल दे और उन पर अपना अज़ाब व सज़ा नाज़िल फरमा।’’ फिर नबी करीम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम पर दुरूद पढ़ते और मुसलमानों के लिए अपनी इस्तिताअत से भलाई की दुआ करते और मोमिनों के लिए इस्तिग़फार करते।’’ (इब्ने ख़ुजैमा: 2/155/156, क़यामे रमज़ान लिल अलबानी स0 32), वल्लाहु आलम बिस-सवाब-

वस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहु

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