Umar Bin Khattab (RA) : ज़माना-ए-जाहिलीयत की ज़िन्दगी 02 : Part 3


بِسمِ اللہ ِالرَّحمٰنِ الرَّحِیم
اَلحَمدُ للہِ رَبِّ العٰلَمِینَ وَالصَّلَاۃُ وَالسَّلَامُ عَلٰی رَسُولِہِ الاَمِینِ وَالعَاقِبَۃُ لِلمُتَّقِینَ، اَمَّا بَعدُ
अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन, वस्सलातु वस्सलामु अला रसूलिहिल अमीन, वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

(अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिउं व अला आलि मुहम्मद कमा सल्लईता अला इब्राहीमः व अला आलि इब्राहीमः इन्नकः हमीदुम्मजीद अल्लाहुम्मः बारिक अला मुहम्मदिउं व अला आलि मुहम्मद कमा बारकता अला इब्राहीमः व अला आलि इब्राहीमः इन्नका हमीदुम्मजीद।)

उमर बिन ख़त्ताब रज़िअल्लाहु अन्हु शख़्सियत और कारनामे

आप रज़िअल्लाहु अन्हु साहिबे हिक्मत व दानिश, बलीग़, उमदा राय वाले, ताक़तवर, बुर्दबार, शरीफ, दलील में पुख़्ता और गुफ्तुगू में वाज़ेहुल कलाम थे। इन ख़ूबियों ने आपको इस लायक़ बना दिया कि आप दूसरे क़बाइल से फख़्र व मुबाहात यानी शान व शौकत या नफरत व तहक़ीर में क़ुरैश की जानिब से सफीर क़रार पाये।
इब्नुल जौज़ी का बयान हैः उमर बिन ख़त्ताब रज़िअल्लाहु अन्हु के ज़िम्मे सफारत का मनसब था। अगर क़ुरैश और दीग़र क़बाइल में लड़ाई छिड़ जाती तो वो आप को सफीर बनाकर भेजते। या उन (क़ुरैश) को अगर कोई नफरत दिलाने वाला नफरत दिलाता, या फख़्र करने वाला फख़्र करता तो क़ुरैश आप को नफरत दिलाने और फख़्र व मुबाहात जताने के लिए अपना सफीर बना कर भेजते, और आप रज़िअल्लाहु अन्हु से वो सब ख़ुश रहते।

क़ुरैश का जो भी रस्म व रिवाज, इबादतें और निज़ामे ज़िन्दगी होता उसकी तरह से आप दिफा करते, आप दिल के ऐसे मुख़्लिस थे कि जिस बात पर यक़ीन कर लेते उसकी तरफ से दिफा करने में जान खपा देते। यक़ीन की बुनियाद पर दिफा करने वाली ऐसी तबीयत व मिज़ाज की सख्ती की वजह से उमर रज़िअल्लाहु अन्हु ने इस्लामी दावत के बिल्कुल इब्तिदाई मरहले में उस की जम कर मुख़ालिफत की, और उन्हें ख़ौफ महसूस हुआ कि कहीं ये दीन मक्की निज़ाम की चूलैं न हिला दे, जो बहुत ही मुस्तहकम है। और जिस ने मक्का अरबों में एक ख़ास मक़ाम दिया है। इस मक्का में वो घर है जिसकी ज़ियारत के लिए लोग आते हैं। और फिर क़ुरैश को उसी ने दीगर अरबों में एक नुमायां हैसियत दी है। इसी वजह से मक्का रूहानी व माद्दी दौलत से मालामाल है। और यही मक्का की रोज़ अफरोज़ों तरक़्क़ी और इसके सरदारों की मालदारी के असल सबब है। चुनांचे इसी वजह से सरदाराने मक्का ने दीने इस्लाम की बहुत मुख़ालिफत की, और इस पर ईमान लाने वाले कमज़ोरों को बहुत सताया, इन कमज़ोरों पर ज़ुल्म ढाने में उमर रज़िअल्लाहु अन्हु इन्तिहाई सख़्त थे।

आप रज़िअल्लाहु अन्हु ज़माना-ए-जाहिलियत में एक लौंडी के इस्लाम क़ुबूल कर लेने पर उस को इतना मारते रहे कि आप के हाथ थक गये, कोड़ा हाथ से गिर गया, थक कर आप रूक गये। अबू बकर रज़िअल्लाहु अन्हु का उधर से गुज़र हुआ, आप ने उन्हें लौंडी को मारते हुए देखा, तो उसको आप से ख़रीद लिया और आज़ाद कर दिया।

उमर रज़िअल्लाहु अन्हु जाहिलियत में पले बढ़े, और ठेठ जाहिलियत की ज़िन्दगी गुज़ारी और उसकी हक़ीक़त व रस्मो रिवाज से बख़ूबी आशना हुए, और पूरी क़ुव्वत के साथ इसकी तरफ से दिफा किया। लेकिन जब इस्लाम क़ुबूल किया इसकी ख़ूबी व हक़ीक़त को पहचान लिया, हिदायत व गुमराही, ईमान व कुफ्र और हक़ व बालित के दर्मियान हक़ीक़ी फर्क़ से वाक़िफ हो गये तो एक बहुत अहम बात कहीः ‘‘जब इस्लाम में ऐसे लोगों पर परवान चढ़ने लगें जो जाहिलीयत से ना वाक़िफ हो तो इस्लाम की एक एक जड़ टूटती चली जायेगी।’’
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