Asli Ahle Sunnat Kaun Part 03 : आप हयातुन नबी (सल्ल0) के क़ाइल क्यों नहीं? असली अहले सुन्नत कौऩ?

Asli Ahle Sunnat Kaun Part 03 : ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले सुन्नत (Real Ahle Sunnat) कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैं

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘‘ह’’ से मुराद हनफी है और ‘‘म’’ से मुराद मुहम्मदी है। 

ह – ज़िन्दगी में नए-नए मसाइल पैदा होते रहते हैं, जिनका हल इमाम ही पेश कर सकता है, इस लिए इमाम का होना ज़रूरी है।

म – आज कल आपका इमाम कौन है जो आप के पेशे आमद मसाइल हल करता है?

ह – हमारे इमाम तो इमामे आज़म अबू हनीफा रहमतुल्लाह अलैह हैं।

म – वो कब पैदा हुए?

ह – सन् 80 हिजरी में यानी हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के सत्तर साल बाद।

म – क्या उनके बारे में भी आपका अक़ीदा हयातुन नबी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की तरह हयातुल इमाम का है?

ह – नहीं वो तो फौत हो चुके हैं।

म – उन को फौत हुए कितना अर्सा हो गया? 

ह – तक़रीबन साढ़े बारह तेरह सौ साल।

म – जब आप इमाम को हयात भी नहीं समझते और हुज़ूर को हयात समझते हैं और हुजूर और इमाम की वफात में कोई ज़्यादा लम्बा अर्सा भी नहीं तो फिर ये क्या बात कि इमाम की फिक़्हा तो ज़िन्दगी के मसाइल हल करे और हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की फिक़्हा फेल हो जाये और ये काम न कर सके?

ह – इमाम साहब ने अपनी ज़िन्दगी में ही उसूले दीन को सामने रख कर फिक़्हा की ऐसी तदवीन की कि लाखों मसाइल एक जगह जमा कर दिये जो रहती दुनिया तक काम आयेंगे।

म – हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने ये काम क्यों न किया? आखि़र इसकी क्या वजह कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का पेशकर्दा दीन तो सिर्फ सौ साल तक काम दे सका लेकिन इमाम साहब ने इसी दीन को ऐसे अंदाज़ से पेश किया कि आज तक काम दे रहा है। बल्कि क़यामत तक काम देता रहेगा, ताज्जुब है कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के तो सौ साल बाद ही इमाम की ज़रूरत पड़ी, जो ज़िन्दगी के बढ़ते हुए मसाइल का हल पेश करे। लेकिन उस इमाम के बाद तेरह सौ साल हो गये, आज तक किसी इमाम या नबी की ज़रूरत पेश न आयी। वही इमाम वही फिक़्हा काम दे रहे है और आप उसी के नाम पर हन्फी चले आ रहे हैं अगर इमाम साहब ऐसे ही थे जैसाकि आप का दावा है तो अल्लाह ने उन को हुज़ूर की जगह नबी क्यों नहीं बना दिया। न ये मुहम्मदी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) हन्फी का झगड़ा, न इमामों का चक्कर होता। शाफई, मालिकी, हम्बली का मसला भी ख़त्म हो जाता। सब एक होते और हन्फी होते वही नबी वही इमाम, अब अजीब बात ये है कि हयातुन नबी आप लोग हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) को बताते हैं और मसले इमाम साहब के मानते है। कलमा, मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का पढ़ते हैं और हन्फी बन कर पैरवी इमाम अबू हनीफा रहमतुल्लाह अलैह की करते हैं।   

ह – आप लोग हयातुन नबी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के क़ाइल क्यों नहीं?

म – अगर हुज़ूर हयात हों तो हम हयातुन नबी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के क़ाइल हों इस अक़ीदे का कोई फायदा हो तो हम इस के क़ाइल हों, जब आप लोग हन्फी बन गये तो हयातुन नबी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) का अक़ीदा कहाँ रहा, हक़ीक़त ये है कि आप लोग तो हयातुन नबी (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) के क़ाइल हैं सिर्फ रस्मी तौर पर क़ाइल है। दिल व अक़्ल से आप भी इसको सही नहीं समझते। अगर आप लोग इसे सही समझते होते तो कभी हन्फी न बनते, आप का हुज़ूर के बाद हन्फी बन जाना इस बात की बैन दलील है कि आप हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) को ज़िन्दा नहीं समझते वरना कौन ऐसा बदबख़्त है जो नबी की ज़िन्दगी में इमाम और पीर पकड़ता फिरे आप जो इमाम और पीर पकड़ते है तो इसका मतलब है आप हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) को ज़िन्दा नहीं समझते या काफी नहीं समझते।

ह – आप लोग हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की हयात के बिल्कुल क़ाइल नहीं?

म – हम लोग हुज़ूर की बर्ज़ख़ी हयात के क़ाइल हैं। दुनियावी हयात के क़ाइल नहीं।

ह – इस का क्या मतलब?

म – यही कि दुनिया में आप ख़ुद ज़िन्दा नहीं बल्कि आप की नुबुव्वत ज़िन्दा है। बर्ज़ख़ में अल्लाह के हां आप ख़ुद ज़िन्दा है, जिस इमाम को आप पकड़े हुए हैं वो क्या दुनिया में है?

ह – दुनिया में तो वो भी नहीं।

म – फिर आप उससे मसले कैसे लेते हैं?

ह – उनकी तो किताबें मौजूद हैं।

म – तो क्या हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) की हदीस मौजूद नहीं?

ह – किताबें तो इमामों ने ख़ुद लिखीं हैं। लेकिन हदीस तो हुज़ूर ने ख़ुद नहीं लिखी, उसको तो लोगों ने बाद में जमा किया है।

म – फिक़्हा हन्फी जिस को आप मानते हैं, वो कौन से इमाम साहब ने लिखी वो भी तो लोगों ने जमा की है और वो भी बग़ैर सनद के। फिर जैसे फिक़्हा आप तक पहुँचा, हदीस हम तक पहुँच गयी। आप जैसे अपने इमाम की फिक़्हा को फिक़्हा-ए-हन्फी कहते हैं, इससे कहीं ज़्यादा यक़ीन के साथ हम हदीस को हदीसे रसूल कहते हैं क्योंकि फिक़्हा आप लोगों तक बग़ैर सनद के पहुँची है इसके अलावा हदीस दीन है अल्लाह इसकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार है। किसी इमाम की फिक़्हा का अल्लाह ज़िम्मेदार नहीं।

ह – अल्लाह फिक़्हा का ज़िम्मेदार क्यों नहीं?

म – इस लिए कि फिक़्हा लोगों की राय को कहते हैं, जो ग़लत भी हो सकती है और सही भी, फिक़्हा अल्लाह की वह्यी नहीं होती जो सही ही हो, फिक़्हा हर इमाम और फिर्क़े की अलहदा अलहदा होती है। और हदीस रसूल की होती है, और सब के लिए एक होती है। फिक़्हा बदलती रहती है, हदीस बदलती नहीं, लिहाज़ा हदीस दीन है। फिक़्हा दीन नहीं, इसी लिए अल्लाह फिक़्हा की हिफाज़त का ज़िम्मेदार नहीं।  

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