Asli Ahle Sunnat Kaun Part 02 : वसफी और लक़बी नाम रखना बिदअत नहीं फिर हनफी कहलाने में क्या हरज है? असली अहले सुन्नत कौऩ?

Asli Ahle Sunnat Kaun Part 02 : ये एक हनफी और मुहम्मदी का बहुत ही दिलचस्प मुबाहिसा है इसमें Ahle Sunnat के विषय पर Interesting Discussion किया गया है है और मज़हब के बारे में ऐसी बहुत सी बातों के जवाबात Ahle Sunnat के संबंध में ज़ेरे बहस आये हैं. आखि़रकार असली अहले (Ahle Sunnat) सुन्नत कौऩ है? ये सवालात अक्सर ज़ेहनों में पैदा होते रहते है। अतः हम आपको Ahle Sunnat पर आधारित सवालात के जवाबात इस पोस्ट के माध्यम से दे रहे हैं

(बिस्मिल्लिहिर्रहमानिर्रहमी)


इसमें ‘‘ह’’ से मुराद हनफी है और ‘‘म’’ से मुराद मुहम्मदी है। 

…जब कोई अमल हदीसे (रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से साबित न हो उसका करने वाला अहले सुन्नत कैसे हो सकता है?

ह – अल्लाह ने तो क़ुरआन मजीद में मुस्लिम नाम रखा है फिर आप अहले हदीस क्यों बन गये?

म – मुस्लिम तो हमारा ज़ाती नाम है जैसे कि बच्चे की पैदाईश पर उसका नाम रखा जाता है। लेकिन अहले हदीस हमारा वसफी नाम है जो हमारे तरीक़े कार को ज़ाहिर करता है आदमी के कई नाम उसके पेशे, मशागिल और उसके औसाफ के पेशेनज़र पड़ जाते हैं ना ये शरअन मना है ना अरफन, सिर्फ बुरा नाम मना है जैसे क़ुरआन मजीद में है (वला तनावज़ु बिल-अल्क़ाब: और न किसी को बुरे लक़ब दो – सूरः हुजरात: 49/11)। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ‘‘मुहम्मद और अहमद’’ ज़ाती नाम थे जो आपको मुमताज़ करते थे, क़ुरआन मजीद ने ईसाईयों को अहले इंजील कहा है – वल यहकुम अहलुल इंजीलि बिमा अन्ज़लल्लाहु फीह: सूरह माइदा आयत नं0 47, हदीस में है – फ ऊतिरू या अहलल क़ुरआन: ऐ अहले क़ुरआन वित्र पढ़ा करो।

ह – कुछ भी हो हुज़ूर के ज़माने में तो ये मुसलमानों का नाम नहीं था।

म – क्यों नहीं था। नाम तो था अगरचे मशहूर नहीं था। जब वसफी नाम या लक़ब रखना बशर्ते ग़लत और बुरा न हो, जायज़ है तो अगर वो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में न हो तो कोई हरज नहीं क्यों कि इस से इस्लाम की वज़ाहत होती है। तफरीक़ नहीं होती अहले सुन्नत और अहले हदीस वगै़रह नाम जो पहले मशहूर न हुए तो इस की वजह ये है कि उस वक़्त इन नामों की चन्दान ज़रूरत न थी। नाम रखे जाते हैं इम्तियाज़ के लिए उस वक़्त सब मुसलमान थे कोई फिर्क़ा नहीं था सबका तरीक़ा-ए-कार एक ही था। इस लिए उस वक़्त इन नामों की कोई ज़रूरत नहीं थी। जब फिर्क़ा परस्ती शुरू हो गयी, तो ये नाम नुमायां हुए, जब शिया का चर्चा हुआ तो अहले हदीस वल जमाअत का नाम मशहूर हुआ। जब इमामों की तक़लीद ने ज़ोर पकड़ा तो अहले हदीस के नाम को फरोग़ मिला। चुंकि अहले सुन्नत, अहले हदीस और मुहम्मदी वग़ैरह नामों से इत्तिबा-ए-रसूल और ताल्लतुक़ बिर्रसूल का इज़हार होता है, इस लिए ये नाम बुरे नहीं हैं सहाबा अपने आपको इन नामों से मोसूम करते थे।

ह – अगर वसफी और लक़बी नाम रखना बिदअत नहीं तो फिर हनफी कहलाने में क्या हरज है?

म – हनफी कहलाने में तो बहुत हरज है, एक हनफी कहलायेगा तो दूसरा शाफई और इस तरह से इस्लाम में फिर्क़ा पैदा होंगे। जब हमारा असल नाम मिन जानिब अल्लाह मुस्लिमीन है, तो वसफी और लक़बी नाम ऐसा होना चाहिए जो असली नाम का मुमिइयज़ और मुअर्रफ हो, न कि मुक़सिम, हनफियत से इस्लाम की तारीफ नहीं होती, क्योंकि हनफियत इस्लाम की कोई क़िस्म नहीं है, बल्कि तफरीक़ होती है दीन के टुकड़े होते हैं, हनफी शाफई वग़ैरह फिर्क़े इसी तरह तो पैदा हुए हैं इसी लिए अपने आपको हनफी वगै़रह कहना दीन में तफरीक़ पैदा करके इसको बर्बाद करना है। नाम वो रखना चाहिए जो इस्लाम के मुतारादिफ हो और वह मुहम्मदी अहले सुन्नत और अहले हदीस वगै़रह हीे हो सकते हैं, हनफी, शाफई वग़ैरह नहीं, मुहम्मदी, अहले सुन्नत और अहले हदीस में अहले हदीस का नाम ज़्यादा जामे है क्योंकि मुहम्मदियत और सुन्नते रसूल को जांचने का मेअयार सिर्फ हदीस है इसी हदीस के मेअयार ने तो बताया कि देवबंदी और बरेलवी का अहले सुन्नत का दावा सहीह नहीं क्योंकि उनका हदीसों के मुताबिक़ सुन्नतों पर अमल नहीं अहले सुन्नत का नाम इस लिए भी ज़्यादा जामे नहीं है कि लज़े हदीस क़ुरआन को भी शामिल है इसलिए अहले हदीस से मुराद वो जमाअत होती है जो क़ुरआन व हदीस पर अमल करे, हनफियत के लज़ में क़ुरआन व हदीस दोनों निकल जाते हैं सिर्फ फिक़ह हनफी रह जाता है, जो ख़सारा ही ख़सारा है।

ह – हदीस को तो हम भी मानते हैं।

म – सिर्फ मानते ही हैं अमल नहीं करते, अगर अमल करते होते तो अहले हदीस होते, आदमी मानता तो बहुत सी चीज़ों को है लेकिन मंसूब उसकी तरफ होता है जिससे ज़्यादा ताल्लुक़ होता है। मानने को मुसलमान ईसा अलैहिस्सलाम को भी मानते हैं लेकिन ईसाई नहीं कहलाते, क्योंकि उनकी शरीअत पर अमल नहीं करते, मिर्जाई कहने को तो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को भी मानते हैं लेकिन कहलाते अहमदी हैं। क्योंकि उनका असल ताल्लुक़ मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद से है जो उनका नबी है मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से नहीं, मानने को आप हदीस को भी मानते हैं और इमाम शाफई को भी, लकिन न अहले हदीस कहलाते हैं न शाफई कहलाते हैं, क्योंकि आपका असल ताल्लुक़ इमाम अबू हनीफा और इनकी फिक़ह से है। न हदीस से न इमाम शाफई से, मानने को हम इमामों को मानते हैं लेकिन मनसूब सिर्फ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ ही होते हैं क्योंकि इनकी पैरवी करते हैं और इन से ही ज़्यादा ताल्लुक़ रखते हैं इसी लिए न शाफई कहलाते हैं न हनफी।

ह – हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को तो सब मानते हैं।

म – सिर्फ मानते ही हैं पैरवी नहीं करते। अगर पैरवी करें तो हनफी और शाफई बनने की क्या ज़रूरत?

ह – हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद आपका कोई इमाम नहीं?

म – हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद किसी इमाम की ज़रूरत ही नहीं।

ह – ज़िंदगी मुतहर्रिक है, नित नये मसाइल पैदा होते रहते हैं आखि़र वो किस से लेना हैं?

म – हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से।

ह – उन से अब कैसे? वो अब कहां हैं?

म – आप हयातुन नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के क़ाइल नहीं?

ह – हयातुन नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तो मैं क़ाइल हूँ।

म – फिर इमाम की क्या ज़रूरत? जो लेना हो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ले लें।

ह – वो अब क्या देते हैं।

म – अगरचे देते नहीं तो हयातुन नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कैसी और इसका फायदा क्या?

ह – हयात का ये मतलब तो नहीं कि वो अब कुछ देते लेते नहीं?

म – फिर हयात का और क्या मतलब है?

ह – हयात का मतलब तो ये है कि वो सलाम सुनते हैं।

म – क्या वो सिर्फ सलाम सुनने के लिए हयात हैं ये हयात कैसी कि उनके आशिक़ उनकी आँखों के सामने शिर्क व बिदअत करें और वो चुप पड़े उनको गुमराह होता देखते रहें और सलाम सुनते रहें, क्या वो सलाम सुनने के लिए दुनिया में आये थे। या शिर्क व बिदअत को मिटाने और दीन सिखाने के लिए?

ह – दीन तो वो सिखा कर गये थे। अब क्या सिखाना है?

म – अगर वो दीन सिखा गये थे तो फिर इमाम की क्या ज़रूरत?

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