Surah Fatiha Tarjuma and Tafseer : सूरतुल फातिहा का हिन्दी में तर्जुमा व मुख़्तसर तफ़सीर :



Surah Fatiha – बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम : शुरू अल्लाह के नाम से, जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहम करने वाला है। Surah Fatiha (सूरः फातिहा (Surah Fatiha) मक्का में उतरी इस में सात आयतें हैं) यह सूरः Surah Fatiha मक्की है, मक्की या मदी का मतलब है जो सूरतें हिजरत (13 नबूवत) से पहले नाज़िल हुई वह मक्की है चाहे उनका उतरना मक्का में हुआ या उनके आसपास। मदनी वह सूरतें हैं जो हिजरत के बाद नाज़िल हुईं चाहे मदीना या उके आसपास के इलाक़ों में नाज़िल हुईं या उने दूर, यहां तक कि मक्का और उस के आसपास की क्यों न नाज़िल हुई हो।


(1) बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

शुरू करता हूँ अल्लाह तआला के नाम से, जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहम करने वाला है।  

(2) अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन

सब तारीफ अल्लाह तआला के लिए है जो तमाम जहानों को रब (पालने वाला) है।   (3) अर-रहमा-निर्रहीम बड़ा मेहरबान, निहायत रहम करने वाला है।  

(4) मालिकी यऊ-मिद्दीन बदले के दिन (यानी क़यामत) का मालिक है।  

(5) इय्याकः नअबुदु व इय्याकः नस्तईन हम सिर्फ तेरी ही इबादत करते हैं और सिर्फ तुझ ही से मदद चाहते/मांगते हैं।  

(6) इह-दिनस-सिरातल मुस्तक़ीम हमें सीधी और सच्ची (सत्य) राह दिखा।  

(7) सिरातल लज़ीना अनअमतः अलैहिम, ग़इरिल मग़ज़ूबि अलैहिम वलज़्ज़ाॅल्लीन

उन लोगों की राह जिन पर तूने इनआम किया उन की नहीं जिन पर तेरा ग़ज़ब हुआ और न गुमराहों की।     

आमीन!

इस सूरः में इस्तेमाल होने वाली अहम बातों पर ग़ौर फरमाऐंः

  1. “बिस्मिल्लाह” के बारे में इख़्तिलाफ (मतभेद) है कि यह हर एक सूरः की आयत है या हर एक सूरः की आयत का हिस्सा है।
  2. “रब” अल्लाह के अच्छे नामों में से एक नाम है, जिसका मतलब है हर चीज़ को पैदा करके उसकी ज़रूरतों को पूरी कराने वाला और उसे तकमील (पूर्ति) तक पहुँचाने वाला।
  3. “इबादत” का मतलब है किसी की ख़ुशी के लिए बहुत आजिज़ी, बेबसी और विनय का इज़हार, और इब्ने कसीर के क़ौल के ऐतिबार से दीन में पूरी मुहब्बत, आजिज़ी और डर के मजमूआ का नाम है, यानी जिस के साथ प्रेम भी हो और उसकी ताक़त के आगे चालारी और बेबसी का अज़हार भी हो, और ज़ाहिरी या बातिनी अस्बाब के ज़रिये उसकी पकड़ का डर भी हो। सीधा जुमला ‘‘हम तेरी इबादत करते हैं और तुझसे मदद मांगते हैं’’ लेकिन अल्लाह ने यहा दूरे उफउल (कारक) को फेएल (क्रिया) से पहले करके फरमाया कि ‘‘हम सिर्फ तेरी ही इबादत (उपासना) करते हैं और तुझ ही से मदद मांगते हैं’’ इसमें अल्लाह का मक़सद ख़ुसूसियत पैदा करना है। न इबादत (उपासना) अल्लाह के सिवा किसी और की जायज़ (मान्य) है न मदद की किसी से माँगना जायज़ (मान्य) है। इन अल्फाज़ (श्ब्दों) में शिर्क का दरवाज़ा बन्द कर दिया गया है।
  4. “हिदायत” के कई मतलब हैं। रास्ता दिखाना, रास्ते पर चला देना, मंज़िल तक पहुँचा देना, इसे अरबी में इरशाद, तौफीक़, इलहाम, औश्र दलालत से तअबीर किया ताजा है यानी हमें सीधा रास्ता दिखा दे, इस पर चलनें की तौफीक़ दे इसन मज़बूत कर दे ताकि हमें तेरी ख़ुशी हासिल हो जाये, यद सीधा रास्ता है केवल अक़्ल से हासिल नहीं हो सकता। यह सीधा रास्ता वही ‘‘इस्लाम’’ है जिसे नबी करीम जनाब मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुनियां के सामने पेश किया और अब जो क़ुरआन और सहीं हदीस में महफूज़ (सुरक्षित) है।
  5. “सिरातल मुस्तक़ीम” यह “सिराते मुस्तक़ीम” (सीधा रास्ता) की तफसीर (व्याख्या) है कि सीध रास्ता वह है जिस पर वह लोग चले नि पर तेरी नेअमत (अनुकम्पा) हुई। गिरोह है अम्बिया, शहीदों, सिद्दीकों, और नेक लोगों का।
  6. “मग़ज़ूबि अलईहिम” कुछ हदीसों से साबित है कि (जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब (क्रोध) उतरा) से मुराद यहूदी हैं, और (गुमराह) से मुराद नसारा (इसाई) हैं।
  7. “आमीन”सूरः फातिहा के आखि़र में आमीन कहनें पर नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बड़ा ज़ोर दिया है और इसकी फ़ज़ीलत (प्रतिष्ठा) को बयान किया है, इसलिए इमाम और मुक़्तदी दोनों को आमीन कहना चाहिए।

तफसीर Tafseer (व्याख्या): सूरः फातिहा क़ुरआन की पहली सूरः है, जिसकी हदीसों में बडी अहमियत है। फातिहा का मतलब शुरू है, इसलिए इसे अलफातिहा यानी फातिहतुल किताब कहा जाता है, इस के दूसरे भी बहुत से नाम हदीसों साबित हैं। जैसे – उम्मुल क़ुरआन, अस-सबउल मस़ानी, अल-क़ुरआनुल अज़ीम, अश्शिफअ, अर-रूक़्क़यह ‘‘जिस तरह एक सहाबी ने एक बिच्छू के डसे हुऐ को इससे दम किया तो उसे आराम आ गया, नबी-ए-करीम सल्ललल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, तुझे किस तरह मालूम हुआ कि ये दम (रूक़्क़यह ) है। (सहीह बुख़ारी व सहीह मुस्लिम)  

इस सूरत का एक अहम नाम अस-सलात भी है, जैसा कि एक हदीसे क़ुद्सी में है, अल्लाह तआला ने फरमाया – मैंने सलात (नमाज़) को अपने और अपने बन्दे के दर्मियान तक़सीम (बांट) कर दिया है; मुराद सूरतुल फातिहा है जिसका आधा हिस्सा अल्लाह तआला की हम्द व सना और उसकी रहमत व रूबीवियत और अदल व बादशाहत के बयान में है और आधा हिस्सा दुआ व मनाजात है जो बन्दा अल्लाह की बारगाह में करता है इस हदीस में सूरतुल फातिहा को नमाज़ से ताबीर किया गया है, जिस से ये साफ मालूम होता है कि नमाज़ में इसका पढ़ना बहुत ज़रूरी है।  

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशादात में इसकी ख़ूब वजाहत (स्पष्ट) कर दी गयी है, फरमाया ‘‘उस शख़्स की नमाज़ नहीं जिसने सूरतुल फातिहा नहीं पढ़ी, चाहे अकेला (मुन्फरिद) हो, या इमाम या इमाम के पीछे मुक़्तदी, सिर्री नमाज़ हो या जहरी, फर्ज़ नमाज़ हो या निफिल, हर नमाज़ी के लिए सूरतुल फातिहा का पढ़ना ज़रूरी है। इसकी वज़ाहत उस हदीस से होती है कि जिस में आता है कि एक मर्तबा नमाज़-ए-फज्र में और सहाबा-ए-किराम भी नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ क़ुरआर पढ़ते रहे जिसकी वजह से आप पर क़िराअत बोझल हो गयी, नमाज़ ख़त्म होने के बाद जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा कि तुम भी साथ पढ़ते रहे हो? उन्होंने जवाब दिया- हाँ। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया ‘‘तुम ऐसा मत किया करो (यानी साथ-साथ मत पढ़ा करो) अल्बत्ता (परन्तु) सूरः फातिहा ज़रूर पढ़ा करो, क्योंकि इसके पढ़े बग़ैर नमाज़ नहीं होती। (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, निसाई)  

इसी तरह अबु हुरैरह रजिअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि ‘‘जिसने बग़ैर सूरः फातिहा के नमाज़ पढ़ी वो नाक़िस (अधूरी) है मुकम्मिल (पूर्ण) नहीं। तीन मर्तबा आप सल्लल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने यही फरमाया। अबू हुरैरह रजि0 से पूछा गया, ईमाम के पीछे भी हम नमाज़ पढ़ते हैं तो उस वक़्त क्या करें? तो इस पर अबू हुरैरह रजि0 ने जवाब दिया कि तुम सूरहः फातिहा अपने जी (मन) में पढ़ो।  

इन तमाम हदीसों से मालूम पढ़ता है कि हर नमाज़ी का नमाज़ में सूरः फातिहा का पढ़ना निहायत ज़रूरी है। 

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