Calling the Times bad : ज़माने को बुरा कहना

सवाल: हम आम तौर पर ज़माने को बुरा कहते हैं कि ज़माना ही ऐसा बुरा आ गया है, क्या ये कहना दुरूस्त है कि ज़माना बहुत बुरा आ गया है?

जवाब: ज़माना-ए-जाहिलियत में जब मुशरिकीन-ए-अरब को कोई दुख, ग़म, शिद्दत व बला पहुंचती तो वो कहते: हाय ज़माने की बर्बादी! वो इन सब बातों को ज़माने की तरफ मंसूब करते और ज़माने को बुरा भला कहते और गालियां देते हालांकि इन कामों का ख़ालिक अल्लाह तआला है तो गोया उन्होंने अल्लाह तआला को गाली दी। इमाम इबने जरीर तबरी रह0 ने सूरह जासिया की तफसीर में हज़रत अबू हुरैरह रज़ि0 से जिक्र किया है रसूल अल्लाह सल्ल0 ने फ़रमायाः

‘‘अहले जाहिलियत कहते थे कि हमें रात और दिन हलाक करता है? वही हमें मारता और ज़िंदा करता है।’’ तो अल्लाह ने अपनी किताब में फ़माया: ‘‘उन्होंने कहा हमारी ज़िंदगी सिर्फ और सिर्फ दुनिया की ज़िंदगी है, हम मरते हैं और जीते हैं और हमें सिर्फ ज़माना ही हलाक करता है, दरअसल उन्हें उसकी ख़बर नहीं कि ये तो सिर्फ अटकल पच्चू से काम लेते हैं।’’ [तफ़सीर इब्ने कस़ीर : 4/159]

इस आयत की तफ़सीर से मालूम होता हुआ कि ज़माने को बुरा भला कहना और अपनी मुश्किलात और दुखों को ज़माने की तरफ मंसूब करके उसे बुरा भला कहना मुशरिकीने अरब और दहरिया का काम है। दरअसल ज़माने को बुरा भला कहना अल्लाह तआला को बुरा भला कहना हे। सहीह बुख़ारी में हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्ल0 ने फ़रमायाः

‘‘अल्लाह तआला ने फ़रमायाः ‘‘इब्ने आदम मुझे तकलीफ देता है, वो ज़माने को गालियां देता है और मेें साहिबे ज़माना हूँ, मेरे हाथ में माममलात हैं, मैं रात और दिन को बदलता हूँ।’’ 

हवालाः बुख़ारी, किबात अल-तफ़सीरः बाब तफ़सीर सूरह जासिया (4826), मुस्लिम (2246), हमीदी (468/2), मुसनद अहमद (238/2), अबू दाऊद (5274) 

इसी तरह अबू हुरैरा रज़ि0 ने बयान किया कि रसूल अल्लाह सल्ल0 ने फ़रमायाः ‘‘ज़माने को बुरा ना कहो यक़ीनन अल्लाह की ज़माना है (यानी ज़माने वाला है)।’’ [मुसनद अबी याला (452/10)]

एक और रिवायत में ये शब्द हैं ‘‘हरगिज़ कोई ये न कहे ‘‘हाय ज़माने की बर्बादी!’’ बेशक अल्लाह की ज़माना है।’’ [हिल्यतुल औलिया (258/8)] 

इमाम ख़त्ताबी रहिमहुल्लाह ‘‘मैं सहिबे ज़माना हूँ’’ का मायनी बयान करते हैंः ‘‘मैं ज़माने वाला और कामों की तदबीर करने वाला हूँ, जिन कामों को ये ज़माने की तरफ मंसूब करते हैं (यानी दिन रात का निज़ाम वग़ैरा अबदी हैं खुद बखुद चल रहा है। ये ज़माना ही मारता है और ज़िंदा करता है) जिसने ज़माने को इस बिना पर बुरा भला कहा कि वो उन कामों को बनाने वाला है तो उसकी गाली उस रब की तरफ लौटने वाली है जो इन कामों को बनाने वाला है।’’ [फतहुल बारी (575/16)]

चुनांचे ज़माने को बुरा भला कहना जैसा कि लोगों में और समाज में मशहूर है कि ज़माना बुरा आ गया है, गया गुज़रा ज़माना है, वक़्त का सत्यानाश वग़ैरा, दरअसल अल्लाह को बुरा भला कहना है, क्योंकि सारा निज़ाम सारे जहां के मालिक एक अल्लाह के क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में है। वही पैदा करने वाला और वही मारने वाला है, वही सारे कामों की तदबीर करने वाला है और सबकी बिगड़ी बनाने वाला गंज बख़्श, गौस़े आज़म, दाता, फ़ैज़ बख़्श और दस्तगीर है। इस लिए इन तमाम बातों और ज़माने को बुरा कहना अल्लाह को बुरा कहना है जो उनका ख़ालिक़ है। लिहाज़ा ऐसे वाक्यों व कलिमात से बचना चाहिए।

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