The Amazing Story : वैश्याऐं और हज़रत शाह मुहम्मद इस्माईल रह0 का हैरतअंगेज़ क़िस्सा


दोस्तों, वेश्यावृत्ति में लिप्त लड़कियां और औरतें सबसे बेनियाज़ अपनी अदाओं से मर्दों को घायल करती हैं और तमाम मर्द उनके जाल में फंस कर अपना ईमान और जिस्म दोनों ही तबाह कर डालते हैं? उनकी ऐसी हालत में यदि कोई ईमान वाला नेक बंदा उनको उस बुराई से रोकने और नेक रास्ते पर लाने की कोशिश में उनके पास जाए तो क्या ही मंज़र होगा। इसी के चलते आज हम आपको एक ऐसी दास्तान बताने जा रह हैं जिसमें वेश्याओं को वेश्यावृत्ति से निकालकर ईमान में दाखिल करने वाले हज़रत शाह मुहम्मद इस्माईल रह0 ने अपना अहम किरदार निभाते हुए अल्लाह के हुक्म का पालन किया और साबित कर दिया कि जिसे अल्लाह चाहे हिदायत पर लगा दे।

दरअसल , कुछ लड़कियां सबसे बेनियाज़ अपनी अदाओं से सबको घायल करती मदरसाा अज़ीज़िया के दरवाज़े से गुज़र रही थीं कि हज़रत शाह मुहम्मद इस्माईल रह0 की नज़र उन पर पड़ गई। हज़रत ने अपने साथियों से पूछा ये कौन हैं?... साथियों ने बताया कि हज़रत ये तवायफें हैं और किसी नाच रंग की महफिल में जा रही हैं। हज़रत शाह साहब ने फ़रमाया... अच्छा ये तो मालूम हुआ, लेकिन ये बताओ कि ये किस मज़हब से सम्बंध रखती हैं? उन्होंने बताया कि जनाब ये दीने इस्लाम ही को बदनाम करने वाली हैं, अपने आपको मुसलमान कहती हैं।
शाह साहब ने जब ये बात सुनी तो फ़रमायाः  मान लिया कि बदअमल और बदकिरदार ही सही लेकिन कलमा गो होने के एतिबार से हुईं तो हम मुसलमानों की बहिनें... लेकिन हमें उन्हें नसीहत करनी चाहिए, मुमकिन है ये गुनाह से बाज आ जाएं... साथियों ने कहा उन पर नसीहत क्या खाक अस़र करेगी, बल्कि उनको नसीहत करने वाला तो उल्टा खुद बदनाम हो जाएगा।

शाह साहब ने फ़रमायाः तो फिर क्या हुआ? मैं तो ये फ़रीज़ा अदा करके रहूंगा, ख्वाह कोई कुछ भी समझे! साथियों ने अर्ज़ किया, हज़रत! आपका उनके पास जाना दुरूस्त नहीं है, आपको पता है कि शहर के चारों तरफ आपके मज़हबी मुखालिफीन हैं, जो आपको बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते।

आपने फ़रमाया मुझे ज़र्रा भर परवाह नहीं मैं उन्हें ज़रूर नसीहत करने जाऊंगा! इस नेक और तबलीग़े हक़ व इस्लाह का पुख़्ता एवं सच्चा इरादा लेकर घर में तशरीफ़ लाए... दर्वेशाना (फ़क़ीरों वाला) लिबास बदन पर डाला और तने तन्हा (बिल्कुल अकेले) नायका की हवेली के दरवाज़े पर पहुंच गये और आवाज़ दी।

अल्लाह वालियों! दरवाज़ा खोलो और फ़क़ीर की सदा सुनो! आपकी आवाज़ सुनकर चन्द लड़कियां आयीं... उन्होंने दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर दर्वेश (फ़क़ीर) सूरत बुज़ुर्ग खड़ा है। उन्होंने समझा कि ये कोई फ़क़ीर ही है सो उन्होंने चंद रूपये लाकर थमा दिए, लेकिन उसने अंदर जाने का इसरार किया और फिर अंदर चले गए।

शाह साहब ने देखा कि चारों तरफ शमां और क़दीलें रोशन हैं, तवायफें तबले और ढोलक की थाप पर थिरक रही हैं, उनकी पाज़ेबों और घुंगरूओं की झनकार ने अजीब समां बांध रखा है।

जैसे ही नायका की निगाह उस फ़क़ीर पर पड़ी उस पर हैबत तारी हो गई। वो जानती थी कि उसके सामने फ़क़ीराना लिबास में गदागद नहीं है, बल्कि शाह मुहम्मद इस्माईल खड़े हैं... वो जो हज़रत शाह वलीयल्लाह के पोते और शाह अब्दुल अज़ीज़, शाह रफीउद्दीन और शाह अब्दुल क़ादिर के भतीजे हैं।

नायका तेज़ी से अपनी लाइन से उठी और एहतिराम के साथ उनके सामने जा खड़ी हुई, बड़े अदब से अर्ज़ किया: हज़रत आपने हम सियाहकारों के पास आने की ज़ेहमत क्यों की...? आपने पैग़ाम भेज दिया होता तो हम आपकी खि़दमत में हाज़िर हो जातीं!

आपने आंखें बंद किये बग़ैर नामेहरम से कहा: बड़ी ही तुमने सारी ज़िंदगी लोगों को राग व सुरूर सुनाया है... आज ज़रा कुछ देर हम फ़क़ीरों की सदा भी सुन लो!

जी, सुनाइए हम मुकम्मल तवज्जो के साथ आपका बयान सुनेंगी। ये कह कर उसने तमाम तवायफों को पाज़ेब उतारने और तबले ढोलकियां बद करके वअज़ सुनने का हुक्म दे दिया। वो हमातन गोश होकर बैठ गईं।

शाह मुहम्मद इस्माईल (रह0) ने हमाइल शरीफ निकालकर सूरह अल-तीन की तिलावत फ़रमायी... आपकी तिलावत इस क़दर ख़ूबसूरत अंदाज़ में और पुर सोज़ थी कि तवायफें बेखुद हो गईं... इसके बाद आपने आयाते मुबारक का दिलनशीन रवां तर्जुमा करके बयान शुरू कर दिया। उनका ये खि़ताबे ज़ुबां कानों से खि़ताब ना था बल्कि ये दिल का दिलों से और रूह का रूहों से खि़ताब था। ये खि़ताब दरअसल उस इल्हामी ज़ुबान का करिश्मा था जो शाह साहब जैसे मुख़लिस दर्दमंदों और उम्मते मुस्लिमा के हकीक़ी ख़ैरख्वाहों के दिलों पर उतरता है। जब तवायफों ने शाह साहब के दिलनशीन अंदाज़ में सूरत की तशरीह सुनी तो उन पर लर्ज़ा तारी हो गई, रोते रोते उनकी हिचकियां बंध गईं।

शाह साहब ने जब उनकी आंखों में आंसूओं की झड़ियां देखीं तो उन्होंने बयान का रूख़ तौबा की तरफ़ मोड़ दिया और बताया कि जो कोई गुनाह कर बैठे तो अल्लाह से उसकी माफ़ी मांग ले तो अल्लाह बड़ा रहीम है। वो माफ़ भी कर देता है बल्कि उसे तो अपने गुनहगार और सियाहकार बंदों की तौबा से बेहद ख़ुशी होती है। आपने तौबा के इतने फ़ज़ाइल बयान किये कि उनकी सिसकियां बंध गईं।

किसी तरह से शहर वालों को उस वअज़ व नसीहत की ख़बर हो गई, वो दौड़े दौड़े आएऔर मकानों की छतों दीवारों चैकों और गलियों में खड़े होकर वअज़ सुनने लगे, यहां तक कि लोगों के सिर ही सिर नज़र आने लगे।

शाह साबह ने उन्हें उठकर वुज़ू करने और दो रकात निफिल नमाज़ अदा करने की हिदायत की। रावी कहता है कि जब वो वुज़ू करके क़िबला रूख खड़ी हुईं और नमाज़ के दौरान सजदों में गिरीं तो शाह साहब ने एक तरफ खड़े होकर अल्लाह के सामने हाथ फैला दिए और अर्ज़ कियाः 

‘‘ऐ मुक़ल्लिबल क़ुलूब, ऐ मुसर्रिफल अहवाल!’’ मैं तेरे हुक्म की तामील में इतना कुछ ही कर सकता था ये सजदों में पड़ी हैं, तू इनके दिलों को पाक कर दे, गुनाहों को माफ़ कर दे और इन्हें आबरूमंद बना दे तो तेरे लिए कुछ मुश्किल नहीं, वरना तुझपर किसी का ज़ोर नहीं। मेरी फरयाद तो ये है कि इन्हें हिदायत अता फरमा इन्हें नेक बंदों में शामिल फ़रमा! इधर शाह साहब की दुआ ख़त्म हुई और उधर उनकी नमाज़... वो इस हाल में उठीं की दिल पाक हो चुके थे।

अब शाह साहब ने (इफ्फते मआब ज़िंदगी) इज़्ज़त भरी ज़िंदगी की बरकात और निकाह की फ़ज़ीलत बयान करनी शुरू कर दी और इस विषय को इस क़दर अच्छे अंदाज़ से बयान किया कि तमाम तवायफें गुनाह की ज़िंदगी पर बड़ा अफसोस करने लगीं और निकाह पर राज़ी हो गईं... चुनांचे उनमें से जवान औरतों ने निकाह कर लिए और अधेड़ उम्र वालियों ने घरों में बैठकर मेहनत मज़दूरी से गुज़ारा शुरू कर दिया। कहते हैं कि उनमें से सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत मोती नामी ख़ातून को जब उसके पिछले जानने वालों ने शरीफ़ाना हालत और सादा लिबास में मुजाहिदीन के घोड़ों के लिए हाथ वाली चक्की पर दाल पीसते देखा तो पूछाः

वो ज़िंदगी बेहतर थी जिसमें तू रेशम व हरीर के मलबूसात में शानदार लगती और तुझ पर सीम व ज़र न्योछावर होते थे या ये ज़िंदगी बेहतर है जिसमें तेरे हाथों पर छाले पड़े हुए हैं?

कहने लगी, अल्लाह की क़सम! मुझे गुनाह की ज़िंदगी में कभी इतना लुत्फ़ न आया जितना मुजाहिदीन के लिए चक्की पर दाल डालते वक़्त हाथों में उभरने वाले छालों में कांटे चुभोकर पानी निकालने से आता है!

(नोटः ये क़िस्सा तज़किरतुल शहीद से लिया गया है।)
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