Zameer : आप "इशरत" का हुक्म मानेंगे या "ज़मीर" का : Ishrat



Zameer and Ishrat : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम!  अस्सलामु अलैकुम व रह मतुल्लाहि व ब रकातुहू, मेरे नौजवान दोस्तो ! खुदावंद तआला ने हमारे अन्दर हमारा एक ऐसा दोस्त पैदा किया है, जो हर वक़्त हमें बुरी बातों से रोकता है। चुनांचे (इस कारण से) जब हम किसी बुरे काम का इरादा करते तो हमारा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। यह गोया ख़तरे की घंटी है जो बजने लगती है, हमारी सांस फूलने लगती है, घबराहट सी होती है और अन्दर से एक आवाज़ सुनाई देती है जो Zameer बार-बार कहती है— “यह काम न करो, यह गुनाह (पाप), है इससे अल्लाह नाराज़ होगा, ख़ानदान की इज़्ज़त जाती रहेगी और तुम हमेशा के लिए बदनाम हो जाओगे। अब भी इससे बाज़ आ जाओ।” हमारे इस दोस्त का नाम (Zameer) ज़मीर (आत्मा की आवाज़) है और अल्लाह पाक ने उसे हमारा मुहाफ़िज़ (संरक्षक) बनाकर रखा है। हम इन पोस्ट में ऐसे दोस्तों के लिए जो आपको बुरे कामों से रोकने की हर मुमकिन (संभव) कोशिश करें (Zameer) ज़मीर (आत्मा) का नाम इस्तेमाल करेंगे। लेकिन अज़ीज़ दोस्तो, बात इसी पर ख़त्म नहीं होती, बल्कि उसे अच्छे दोस्त, यानी ज़मीर (Zameer) के साथ-साथ हमारे अंदर एक बुरा दोस्त भी मौजूद है, जो हमें हर वक़्त बुरे कामों पर उकसाता रहता है, बुरे-बुरे ख़्यालात हमारे दिमाग़ में जमा (संग्रह) करता है, दिल-फ़रेब (मनोहर) नक़्शे बांधता और तरह-तरह की तरकीबें (योजनाएँ) बताता रहता है। वह Ishrat हमें बार-बार कहता रहता है “क्यों घबराते हो यार, आगे बढ़कर यह काम कर लो। इसका लुत्फ़ (आनंद) उठाओ, फिर जो होगा देखा जाएगा। झूठ बोलकर अपनी जान बचा लेना। देखो इस मौक़े (अवसर) को हाथ से न जाने देना।” इस बुरे दोस्त को नफ़्स (मन) कहते हैं और हम ऐसे बुरे दोस्तों के लिए इस इन पोस्ट में नफ़्स की बजाय इशरत खाँ (Ishrat Khan) का नाम इस्तेमाल करेंगे।

पिछली पोस्ट में मैनें आपको “दोस्त की ज़रूरत और दोस्ती के मेयार” के बारे में जानकारी दी है हमेंउम्मीद है आपने अब अच्छे और बुरे दोस्त में तमीज़ (निर्णय करना सीख लिया होगा और दोस्ती निभाने के उसूल (सिद्धांत) भी समझ लिए होंगे—मैं अपने अज़ीज़ (प्यारे) दोस्तों को तबाह (भ्रष्ट) होते देखता हूँ तो कलेजा मुंह को आता है। मेरे भोले-भाले और मासूम (निष्कपट) दोस्त अक्सर चालाक और ख़राब क़िस्म के लोगों के हत्थे चढ़ जाते हैं या अपनी नासमझी की बिना पर अपनी सेहत, दुनिया और आकि़बत (भविष्य) को तबाह करते हैं। अक्सर बुरी बातें तो उनके बुरे दोस्त उनको बता देते हैं और बहुत-सी ख़राब बातें वह खु़द ही अपनी नादानी की वजह से सीख लेते हैं।

अक्सर अवक़ात कुछ बातें अपने वालिदैन (माता-पिता) या उस्तादों से पूछते हुए कतराते हैं और उन्हें इससे शर्म-सी महसूस होती है। इसलिए गुमराह हो जाते हैं और ग़लत रास्ता इख्तियार (धारण) करके अपनी तबाही व बर्बादी को दावत (निमंत्रण) देते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि आपको अच्छी किताबें नहीं मिलती, जो आपकी उलझनों का हल (समाधान) बताएं और आप उनसे मुनासिब (उचित) रहनुमाई (मार्गदर्शन) हासिल कर सकें आपकी इसी परेशानी को मद्देनज़र रखते हुए मैं यह तमाम बातों को इस्लमिक वेबसाइट के माध्यम से आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ ताकि आप इसका ध्यान से अध्ययन करें और हर परेशानी के वक़्त इससे रहनुमाई हासिल कर सकें। अल्लाह तआला आपकी मदद फ़रमाए और आप हमेशा सीधा रास्ता इख्ति़यार करें (आमीन)।

याद रखिए, जब हम किसी काम का इरादा करते हैं तो हमारे अन्दर ज़मीर (आत्मा की आवाज़) और नफ़्स (मन) की कशमकश (संघर्ष) होने लगती है। दोनों हमें अपना-अपना हुक्म मानने पर मजबूर करते हैं और आख़िर हम उनमें से किसी एक का हुक्म मान लेते हैं। मसलन अगर हम आमों के बाग़ (बगीचे) के पास से गुज़रें, जहाँ पके हुए आम अपनी बहार दिखा रहे हों, लेकिन वहाँ माली मौजूद न हो, कोई देखने वाला न हो, तो इशरत (Ishrat) फ़ौरन कहेगा आह कितने मीठे आम हैं। वाह भई वाह, माली भी नहीं है । बस मज़े ही मज़े हैं। आगे बढ़ो और आम तोड़ लो।

मगर ज़मीर (Zameer) आड़े आएगा और कहेगा “न भई यह काम न करना, यह चोरी है, गुनाह है, इसकी सज़ा मिलेगी।”

इस पर इशरत खाँ (Ishrat Khan) कहेगा, “अरे मियाँ कौन पूछता है। आगे बढ़कर आम तोड़ लो। आख़िर इतनी बुज़दिली (भीरुता) भी क्या है। आम तोड़ो और भाग निकलो। देखूंगा कौन तुम्हें पकड़ सकता है।”

लेकिन ज़मीर Zameer इस बुरे काम से रोकने की हर मुमकिन (प्रतिपल) कोशिश करेगा और कहेगा, मियां साहबजा़दे अगर तुम मालिक की निगाह से बच भी निकले तो खु़दा की निगाह से कैसे बचोगे जो हर हाल में तुम्हें देखता है और ज़ाहिरो-बातिन (बाह्य और अन्त:) की कोई चीज़ उससे पोशीदार (छुपी) नहीं है। वह तुम्हें इस चोरी की सज़ा ज़रूर देगा। तुम्हारी इस चोरी की फ़िल्म बन जाएगी, जो क़यामत के रोज़ अल्लाह के हुजूर (सामने) दिखाई देगी और तुम्हारे जिस्म के आज़ा (अंग) इसकी गवाही देंगे, फिर उस वक़्त तुम क्या करोगे? ज़रा गौ़र तो करो। आम का मज़ा चंद मिनटों का है लेकिन इसकी सज़ा और बदनामी बहुत ज़्यादा है फिर क्यों बेवकूफ़ बनते हो।

ग़र्ज़ (अभिप्राय) नफ़्स (मन) और ज़मीर Zameer (आत्मा की आवाज़) की यह कशमकश (संघर्ष) उस वक़्त तक जारी रहती है जब तक आप किसी एक का हुक्म नहीं मान लेते। अगर आपने ज़मीर का हुक्म मान लिया तो दुनिया व आख़िरत की कामयाबी आपके क़दम चूमेगी। लेकिन अगर आपने इशरत Ishrat का हुक्म मान लिया तो दोनों जहानों की ज़िल्लत (अपमान) आपके हिस्से में आएगी जिसे कोई भी अक्लमंद पसंद नहीं करता।

यह भी याद रखिए, जिस दोस्त का हुक्म आप ज़्यादातर मानते रहेंगे उसकी ताक़त बढ़ती रहेगी और रफ़्ता-रफ़्ता (धीरे-धीरे) वह आपका हाकिम (शासक) बन जाएगा।

अब अगर ज़मीर Zameer (आत्मा की आवाज़) आपका हाकिम बन जाता है तो दुनिया व आख़िरत की सरबुलंदी (ख्याति) और कामयाबी आपका मुक़द्दर (भाग्य) बन जाएगी और इशरत Ishrat आप पर ग़ालिब (प्रभावशील) हो जाता है, तो इस दुनिया में भी ज़िल्लतो-ख़्वारी (अपमान) और दूसरी दुनिया में भी रुसवाई (अपमान) और बर्बादी से दोचार होना पड़ेगा। अब आप खु़द ही सोच लें और फैसला करें कि आप इशरत Ishrat का हुक्म मानेंगे या ज़मीर Zameer का।

हमारा मुख्लेसाना (निश्छलतापूर्ण) मशवरा यही है कि आप हमेशा ज़मीर Zameer की बात मानना और कभी भूलकर भी इशरत Ishrat की बात पर कान न धरना। हां, अगर इत्तेफ़ाक़िया (संयोगवश) ग़लती से ऐसा हो ही जाए तो फ़ौरन तौबा (निष्पाप हो) करके आइंदा के लिए मुहतात (सावधान) रहने का अज़म (इच्छा) कर लेना, क्योंकि इसमें आपकी कामयाबी और तरक़्क़ी का राज़ है।

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