Psychological desires : ख़्वाहिशात (इच्छाएं) और उनका इलाज : Treatment



Psychological desires : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, मेरे प्यारे नौजवान दोस्तों, अस्सलामु अलैकुम व रह मतुल्लाहि व ब रकातुहू! इस पोस्ट में आप लोगों को इंसान की नफ़सानी ख़्वाहिशात Psychological desires के बारे में जानकारी दी जा रही है और साथ ही इसका इलाज बताया गया है। चूंकि हर इन्सान आरजु़ओं (इच्छाओं) Psychological desires और उलझनों का शिकार होता रहता है अक़्सर लोग इसी Psychological desires के शिकार हैं और यह सिलसिला सारी ज़िन्दगी जारी रहता है। लिहाज़ा हम आपको यह बताना ज़रूरी समझते हैं कि Psychological desires इंसान के अंदर क्यों पैदा होती हैं आख़िर ऐसा क्यों होता है और लोग क्यों इस Psychological desires जैसी मोहलक बीमारी में मुबतला होते हैं लेकिन इस गुफ़्तगू (चर्चा) में जो अल्फ़ाज़ (शब्द) बार-बार इस्तेमाल होंगे, पहले उनकी तश्रीह (व्याख्या) सुन लीजिए- Now let’s start : Psychological desires and their Treatment. Psychological Desires

1. शऊर (सचेत) : यह लफ़्ज़ (शब्द) आप बार-बार सुनते रहे हैं और आइंदा पोस्ट में इसे कई बार पढ़ेंगे। इसलिए आप इसका मतलब ख़ूब अच्छी तरह समझ लें और याद रखें- शऊर, सोच, समझ और अक्लो-फ़िक्र का मर्कज़ (केन्द्र) है। इसकी बदौलत इंसान दूसरी तमाम मख़्लूकात (प्राणधारी जीव) से अलग है और इंसानी तहज़ीब (सभ्यता) की नमूदो-नुमादश (प्रदर्शन करने वाला) और नशोनुमा उसी की वजह से है।

2. लाशऊर (अचेत) : यूँ समझिए कि यह नफ़्स (मस्तिष्क, दिमाग़ का वह हिस्सा है) जहाँ ऐसी ख़्वाहिशात जमा होती रहती हैं, जो पूरी नहीं हो सकती या जिन्हें हम मुआशरे (समाज) के दबाव की वजह से पूरा नहीं कर सकते। गोया मना की हुई ख़्वाहिशात इस हिस्से में जमा हो जाती हैं । नीज़ हर वह वाक़या (घटना) जिसे हम भूल जाना चाहते हैं, ये सब मिल-जुलकर इस हिस्से में अपना अलेहदा (भिन्न) निज़ाम (तंत्र) क़ायम कर लेते हैं, जो आहिस्ता-आहिस्ता किरदार (चरित्र) पर असर डालता रहता है और यह ख़्वाहिशात अपनी तकमील (पूर्ण) के लिए टेढ़े और नापसंदीदा रास्ते इख्तियार करती रहती हैं।

अब संक्षेप में यह समझ लीजिए कि शऊर तो हर क़िस्म की ख़्वाहिशात पैदा करता रहता है, जबकि लाशऊर उन ख्वाहिशात की परवरिश (पालन-पोषण) करता है जो पूरी न हो सकें और यों हमारे लिए उलझनें पैदा करता रहता है।

3. माहौल (वातावरण) : हर वह ख़ारिजी (सबब) जो इंसानी जिंदगी पर किसी न किसी तरीक़े से अस़र अंदाज़ (प्रभावित) होता रहे यानी चारों ओर के हालात।

4. मुताबिक़त माहौल : यानी अपने आपको हालत के मुताबिक़ बनाना और तमाम (संपूर्ण) मुश्किलात (परेशानियों) का कामयाबी से मुक़ाबला करना।

आरजुएं

इस दुनिया में रहते हुए हमें बहुत-सी चीज़ों की ज़रूरत होती है जैसे कि खाने-पीने, रहने-सहने और कपड़े वग़ैरह पहनने की ज़रूरत ज़िंदगी गुज़ारने के लिए लाज़मी है। फिर इन ज़रूरियात (आवश्यकताओं) को पूरा करने के लिए मुख़्तलिफ़ (भिन्न) क़िस्म की वस्तुएं दरकार (आवश्यक) होती हैं। कई क़िस्म के काम करने पड़ते हैं और दिखावट और सुन्दरता का जज़्बा (उत्साह) हमें दूसरों से आगे बढ़ जाने पर भी मजबूर करता है । ऐशो-आराम करने का भी ख़्याल पैदा होता है। इस तरह ख़्वाहिशात हमारे अन्दर पैदा होती रहती हैं और हम उनको किसी सूरत में भी रोक नहीं सकते। ताहम (यद्यपि) यह ख़्वाहिशात तकलीफ़देह नहीं होतीं। क्योंकि ज़रूरियात के तहत (अंदर) आती हैं और इंसानी जिंदगी की बक़ा और बहबूद (कल्याण) के लिए लाज़मी है।

उलझनें

जो ख़्वाहिशात, ज़रूरियात, जिंदगी से बढ़कर ऐशो-इशरत (सुखकर) तक पहंचती है या जिन ख़्वाहिशात का पूरा करना मुआशरे या मज़हब की निगाह में जुर्म और गुनाह होता है। वह ख़्वाहिशात हमारे ज़हन (मन) में कई क़िस्म की उलझनें पैदा कर देती हैं, क्योंकि जुर्म और गुनाह का अहसास हर आदमी को परेशान करता रहता है और ऐसी ख़्वाहिशात हर रोज़ बढ़ती ही जाती है। लिहाज़ा यह पूरी होने वाली ख़्वाहिशात हमारे लाशऊर में जमा होती रहती हैं और फिर तरह-तरह से हमें परेशान करती रहती हैं। कभी एक ख़्वाहिश अपनी तकमील के लिए तंग करती है कि पहले मुझे पूरा करो, कभी दूसरी कहती है मेरी तकमील करो, और हम किसी को भी पूरा नहीं कर सकते। इस तरह ज़हन में एक मुस्तक़िल (स्थाई) जंग और कशमकश की कैफ़ियत (स्थिति) पैदा हो जाती है। इस कशमकश की वजह से ज़हन थक जाता है । बदन (शरीर) कमज़ोर होने लगता है और फिर आसाबी (स्नायविक) बीमारियाँ घेर लेती हैं।

आसाबी अमराज़ (स्नायविक रोग)

ख़्वाहिशात का बढ़ते जाना या उनका पूरा न होना बड़ा तकलीफ़देह होता है और जब उनका दबाव बढ़ जाता है तो निम्नलिखित बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं, जिन्हें आसाबी अमराज़ (हिस्टेरिया) कहते हैं :

अनजाने खौफ़-दहशत (भय), घबराहट, मायूसी (उदासी), चिड़चिड़ापन, तश्वीश (व्याकुलता), बेज़ारी व बोरियत (बेचैनी) दहशतनाक (भयानक) ख़्वाब (स्वप्न) वगै़रह-वगै़रह और इनकी वजह से हाज़मा (पाचन) ख़राब होने लगता है। नींद कम आती है, रंग-ज़र्द (पीला) हो जाता है, चक्कर आने लगते हैं, गैस और बदहज़मी से खाना हज़म नहीं होता, नज़र कमज़ोर हो जाती है,

थोडा़-सा काम करने से दिमाग़ थक जाता है, पढ़ने-लिखने को दिल नहीं चाहता, कुछ याद नहीं होने पाता। इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता सेहत ख़राब होने लगती हैं। फिर डॉक्टरों के चक्कर में फंसकर जेब का सफाया भी हो जाता है। कारोबार ठप होकर रह जाता है। कभी-कभी आर्ज़ी तौर पर आराम भी हो जाता है। लेकिन मर्ज़ (रोग) की जड़ नहीं जाती, बल्कि मुख़्तलिफ़ शक्लों (रूपों) में तरह-तरह के अमराज़ नमूदार (प्रत्यक्ष) होते हैं। हाई ब्लडप्रेशर, धड़कन और हिस्टेरिया वग़ैरह मुस्तक़िल तौर पर घेर लेते हैं। अक्सर औरतें और बिलखुसूस (मुख्यत:) नौजवान लड़कियां चीख मारकर बेहोश हो जाती हैं, हाथ-पैर अकड़ जाते हैं, कभी बेइख्तियार (अनियंत्रित) हंसने या रोने लगती हैं। लोग समझते हैं इन पर जिन्न का ग़ल्बा (प्रभाव) हो गया है। हालाँकि यह सिर्फ उनकी पूरी न होने वाली ख़्वाहिशात की शोबदेबाज़ी (दिखावा, प्रदर्शन) है।

नौजवानी के आलम में ऐसी ही नाकाम ख़्वाहिशात की बदौलत लड़के आवारा हो जाते हैं, चोरी करने लगते हैं, लड़कियों के पीछे भागते रहते हैं। इस तरह ख़ुद भी बदनाम होते हैं और अपने ख़ानदान को भी बदनाम करते हैं। उनमें झूट बोलने की आदत पैदा हो जाती है। वह ख़ुद पसंद और ज़िद्दी हो जाते हैं। लेकिन इन ख़्वाहिशात में सबसे ज़्यादा ताक़तवर और ख़तरनाक ख़्वाहिश जिंसी (यौन संबंधी) जज़्बे की तसकीन (शांत करना) होती है जिस पर हम आइंदा पोस्ट में रौशनी डालेंगे।

जब ख़्वाहिशात पूरी नहीं होती और उनको हम अपने दिमाग़ से खुरच कर बाहर निकाल देने की कु़व्वत नहीं पाते, बल्कि उनको दबाने में नाकाम रहते हैं और उनसे निजात (छुटकारा) हासिल करने की बजाय दिल ही दिल में उनका लुत्फ़ (आनंद) उठाते और चटखारे लेते हैं तो उसे ख़्याली पुलाव पकाना कहते हैं। इस तरह तसव्वुर (कल्पना) ही तसव्वुर में उन ख़्वाहिशात को पूरा करने लगते हैं, जिससे हमारी अमली कु़व्वतें कमज़ोर हो जाती हैं और हम एक अमली आदमी (व्यावहारिक मनुष्य) नहीं रहते। नतीजा (परिणाम) यह होता है कि हम ज़िंदगी की दौड़ में ज़लीलो-ख़्वार हो जाते हैं फिर ज़िंदगी की रंगीनी और दोस्तों की महफ़िल सब फ़ीकी, उदास और खु़श्क-सी महसूस होने लगती हैं और हम उनमें कोई आकर्षण नहीं पाते। इस तरह तरक़्क़ी करने का जज़्बा (उत्साह) मर जाता है और हम दिल शिकस्ता (उदास), नाकाम और नापसंदीदा इंसान बनकर रह जाते हैं। यहां तक कि अहसासे कमतरी (हीन भावना) हमें ज़िल्लत की गहराइयों में फेंक देता है।

उलझनों से निजात (छुटकारा) का तरीक़ा

ख़ालिक़े अकबर ने हमें बड़ी ताक़तवर क़ुव्वतें और सलाहियतें बख़्शी हैं। अगर हमें उनका अहसास हो जाए और हम उनसे काम लेने का तहय्या (निश्चय) कर लें तो उन ख़्वाहिशात और उलझनों से निजात हासिल कर लेना कोई मुश्किल काम नहीं है। हमारे अन्दर एक क़ुव्वत ऐसी है जिसे हम क़ुव्वते-इरादी (इच्छा-शक्ति) कहते हैं। ख़्वाहिशात से निजात हासिल करने का आसान तरीन (सरल) तरीक़ा यह है कि इस क़ुव्वत से काम लिया जाए। ज्यों ही ख़राब क़िस्म की ख़्वाहिश पैदा हो फ़ौरन क़ुव्वते इरादी को अमल में लाया जाए। मसलन राह चलते हए अगर किसी औरत से सामना हो जाए और यह ख़्वाहिश पैदा हो कि उसे देखा जाए तो उस वक़्त क़ुव्वते इरादी से काम लेकर कहना चाहिए-

“यह शैतानी काम और सख़्त गुनाह है। मैं इस वक़्त औरत की तरफ़ हरगिज़ नहीं देखूंगा । मेरा अल्लाह मुझको देखता है।”

जब पूरे जोशो-ख़रोश और अमल व इरादे के साथ यह कहा जाएगा तो आँखें औरत की तरफ़ नहीं उठेगी। इस तरह क़ुव्वते इरादी को उभारना, उससे काम लेना और उसे हमेशा बुलंद रखना ख़्वाहिशात को कुचलने का बेहतरीन तरीक़ा है

इसमें एक ख़ास बात याद रखने के क़ाबिल यह है कि ख़्वाहिश अगर ख़राब हो यानी गुनाह की बात हो तो उसे पैदा होते ही कुचल दिया जाए। वरना अगर उसे क़दम जमाने का मौक़ा मिल गया तो फिर उसको कुचलना मुश्किल हो जाएगा और अगर नेक ख़्वाहिशात पैदा हों तो उनको पूरा करने के लिए कोशिश करते रहना चाहिए। याद रखिए, अच्छी बातों को सोचना भी नेकी है। बस अच्छे ख़्यालात की हिफ़ाज़त (रक्षा) कीजिए और अल्लाह पाक से उनकी तकमील के लिए दुआ करते रहिए।

तीन शदीद (कठिन) ख़्वाहिशें

दरअसल तमाम ख़्वाहिशात की बुनियाद (आधार) तीन चीज़ों पर होती हैं-

1. उम्दा (उच्च) क़िस्म के खाने,
2. ज़्यादा बातें करना,
3. लड़कियों या लड़कों की तरफ़ देखना।

इनका इलाज भी आसान है, बशर्ते कि मुस्तक़िल मिज़ाजी (दृश्य निश्चय) और मज़बूत इरादे से उस पर अमल किया जाए। हम तरतीबवार (क्रमानुसार) उनका आसान इलाज पेश करते हैं-

1. उम्दा क़िस्म के खाने– यह यक़ीन मज़बूत करने की ज़रूरत है कि रिज़्क (आहार) देने वाला अल्लाह पाक है। उसने जो हमारे नसीब में लिख दिया है उस रिज़्क़ पर राज़ी रहना हमारे लिए फायदेमंद है। इससे एक तो अल्लाह पाक की नाशुक्री नहीं होगी और दूसरे सब्र करने की खूबियाँ पैदा होंगी जिनकी वजह से अच्छे खाने की इच्छा दब जाएगी और इस तरह बहुत-सी परेशानियों से ख़ुद-ब-खुद निजात हो जाएगी।

2. ज़्यादा बातें करना- इसका इलाज यह है कि अपनी ज़बान को सच बोलने का पाबंद कर लिया जाए। यानी जो बात की जाए वह सच्ची हो। इस तरह फुजूल बातें ख़ुद-ब-खुद ख़त्म हो जाएँगी और उनकी वजह से जिन फ़ितनों (विद्रोह) के पैदा होने का अंदेशा (संदेह) होता है वह भी ख़त्म हो जाएगा। नीज़ इन फ़ुजूल बातों से पैदा होने वाली ख़्वाहिशात और उलझनें रफ़्ता-रफ़्ता ग़ायब हो जाएँगी।

3. नज़रबाज़ी— इसका इलाज यह है कि क़ुव्वते इरादी से काम लेकर लड़कियों या लड़कों की तरफ़ न देखने की क़सम खा लें। इससे हर क़िस्म (प्रकार) की लड़ाई का दरवाज़ा बंद हो जाएगा यह कोई मुश्किल काम नहीं है। बस इरादा मज़बूत होना चाहिए, क्योंकि जो शख़्स (मनुष्य) अपनी आँख की हिफ़ाज़त करता है वह नज़रबाज़ी की लानत (दुर्व्यवहार) से निजात हासिल कर लेता है।

नबी अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया है-

“अपनी आँख की हिफ़ाज़त करो।”

“अगर यह दुरुस्त (यथार्थ) है तो तेरा सारा बदन दुरुस्त है।”

याद रखिए, बुरी नज़र शैतान के तीरों में से एक ज़हर आलूद (कलंकित) तीर है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं। इसलिए नज़रें नीची रखिए और औरत पर नज़र पढ़ते ही निगाह नीची कर लीजिए।

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