New Generations : बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, अस्सलामु अलैकुम व रह मतुल्लाहि व ब रकातुहू! प्रिय पाठकगण, आज हम जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं वो है मुस्लिम नई पीढ़ी नई नसल New Generations of Muslims के संबंध में, जिनका ब्रेन वाशिंग किया जा रहा है यानी इस्लाम के खि़लाफ ‘‘पट़टी पढ़ाई’’ जा रही है जिससे वो इल्हाद (नास्तिकता) की गंगा में तैरते नज़र आ रहे हैं। आज हमें अपनी नई पीढ़ी New Generations की फिक्र लगाने के आवश्यकता है, अगर आज हमने अपनी मुस्लिम क़ौम की नई पीढ़ी नई नसल New Generations की फिक्र नहीं की और उन्हें सीधे रास्ते पर चलाने की कोशिश नहीं की तो वास्तव में हमारी नई पीढ़ी New Generations इल्हाद (नास्तिकता) के अंधकार में डूबती चली जायेगी और इस तरह से वो अपनी दुनियावी ज़िन्दगी को आखि़रत की ज़िन्दगी पर तरजीह देती रहेगी और अपनी आखि़रत को ख़राब करती चली जायेगी, जिसके ज़िम्मेदार हम स्वयं होंगे। चुनांचे आज हमें चाहिए कि हम अपनी नई पीढ़ी New Generations को दीने शरीअत का ज्ञान दिलायें और हक़ीक़त से आगाह करें, ताकि दूसरी क़ौम के लोग हमारी नई पीढ़ी New Generations का ब्रेन वाशिंग ना कर सकें और उन्हें इल्हाद (नास्तिकता) की खाई में धकेलने में नाकाम हो जाऐं, इसी बात की फिक्र में जनाब मुहम्मद आसिम असद सलफी हफिज़हुल्लाह साहब इटावी ने अपने नीचे दिए गये लेख में अपने कुछ बीते पल को समेट दिया है, आप इससे नसीहत हासिल करें, और जो निर्देश दिये हैं उनका पालन करते हुए अपनी नई पीढ़ी News Generations को जहन्नम की आग से बचा लीजिए, चलिए अब शरू करते हैं- New Generations and Atheism (New Generations and Unbelief), now lets start New Generations:
नई पीढ़ी और इल्हाद (नास्तिकता)
पहले अक्सर मेरे ज़हन के दरवाज़े पर ये सवाल दस्तक देता था और हर बार मुझे हैरत में डाल देता था कि लोग मुर्तद (स्वधर्मत्यागी) Apostasy or Apostate कैसे हो जाते हैं, उनका ईमान इतना ज़्यादा कमज़ोर कैसे हो जाता है कि (संदेह) शुकूक व शुबहात Doubts and Suspicions का एक हल्का सा झौंका न र्सिफ उनके ईमान को डगमगा देता है बल्कि उसे अपने साथ ले जाकर इल्हाद (नास्तिकता) की वादी में ला पटकता है, कि जहां ‘‘रब’’ नाम की कोई चीज़ नहीं होती, जहां दीन का शब्द ना मालूम होता है, जहां सूरज, चाँद व तारे आप निकलते हैं, और खुद ही छुप (अस्त हो) जाते हैं। बल्कि कायनात का पूरा निज़ाम यूँ ही बग़ैर किसी की तदबीर (उपाय) के चलता है। मगर मेरी नाक़िस अक़्ल (Minus Brain) की पहुंच रिसाई (Approach) जवाब तक न हो पाती और सवाल ज्यूं का त्यूं रहता लेकिन शायद आज मुद्दतों बाद मुझे इसका जवाब मिला और यूं मेरी इस तलाश व जुस्तजू को एक मंज़िल मिल ही गयी।
दरअसल, हाल ही में मुझे इस बात (का इल्म) की जानकारी हुई कि दुनिया में कुछ पढ़े लिखे (Educated) मुसलमान ऐसे भी हैं जिन्हें ये तक नहीं मालूम कि सहाबा व सहाबियात किसे कहते हैं और ये किन लोगों के लिए बोला जाता है? अगरचे दीन के दूसरे वाजबी मसाइल का बुनियादी इल्म हो।
हुआ कुछ यूं कि आज उर्दू पढ़ाते वक़्त जब मैंने नवीं, दसवीं और बारहवीं, क्लास की तीन तालिबात (जिनकी उम्र लगभग 16, 19 और 21 साल रही होगी) और सातवीं क्लास के एक तालिब इल्म से (जो 12 साल का है) सहाबा व सहाबियात के बारे में सवाल किया तो ना मालूम का जवाब सुनकर मैं एक पल के लिए सकते में आ गया कि ये भी मुमकिन है कि कोई मुसलमान हो और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जान निसार सहाबा-ए-किराम को ना जानता हो?
ख़ैर, ये तो फिर भी ग़नीमत था मगर इससे भी ज़्यादा हैरत अंगेज़ वाक़िया तब पेश आया जब दसवीं क्लास की एक तालिबा ने (जो लगभग 18 साल की होगी) बात चीत के दौरान ये बताया कि वो तमाम इंसानों के वालिदे मोहतरम हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और वालिदा मोहतरमा हज़रत हव्वा अलैहस्सलाम के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं है बल्कि उसके लिए तो ये नाम ही बिल्कुल नए थे। अल्लाहु अकबर!
नीज़ ये वो लड़के और लड़कियां हैं जिन्होंने बचपन ही से इंग्लिश मीडियम में तालीम हासिल की है, इन्होंने खुद बताया है कि हमने ‘‘रामायण’’ और ‘‘महाभारत’’ पूरी और ‘‘गीता’’ अधूरी पढ़ रखी है, उन्हें ज़रूरी दुआऐं भी याद नहीं, बल्कि उन्हें बहुत से ‘‘श्लोक’’ ज़रूर ज़ुबानी याद हैं।
अब ज़रा तसव्वुर करें कि ये वो बच्चे हैं जो दीनी तालीमात से तक़रीबन कमज़ोर हों और बचपन ही से जिनके ज़ेहन व दिमाग़ में कुफ्र व शिर्क की गंदिगी उढ़ेली जा रही हो, इस्लामी तालीमात विशेष रूप से पर्दा वग़ैरा के संबंध में दिलों में नफ़रत भरी जा रही हो, वो इस्लाम से बदज़न नहीं तो और क्या होंगे। इस्लाम के बारे में इनका नज़रिया क्या वही होगा जो एक हक़ीक़ी मुसलमान का होता है और जो शरीयत के लिए ज़रूरी है?
– जो आदम व हव्वा अलैहिमस्सलाम के जन्नत से निकाले जाने और दुनिया में भेजे जाने के मक़सद को न जानते हों क्या वो दुनिया में आकर मुमिनों वाली ज़िन्दगी गुज़ार पायेंगे?
– क्या वो दुनिया में रहकर आखि़रत की तैयारी कर पायेंगे?
हरगिज़ नहीं! बल्कि जिसको इस्लाम के बारे में बुनियादी जानकारी ना हो उसे शरीयत के दीगर बुनियादी अहकामात जो मुश्किल होते हैं उनकी जानकारी कैसे हो सकती है?
नीज, यही वजह है जब बात आगे बढ़ी तो ये गांठ भी खुली कि इनका नज़रिया-ए-इस्लाम, हक़ीक़ी इस्लाम से बिल्कुल भिन्न ही नहीं बल्कि खि़लाफ है। इनके नज़र में दीने इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जो एक ‘‘असहनीय कार्य’’ की ज़िन्दा तस्वीर है यानी इस पर अमल इंसान के बस की बात नहीं, गोया वो कोई और ही मख़लूक़ है जिसके लिए ये शरीयत उतारी गयी हो।
ख़ैर मामला अगर यहीं तक होता तब भी एक पल के लिए ग़नीमत था लेकिन मसला उस वक़्त ज़्यादा संगीन हो गया जब ‘‘अक़ीदा’’ के बुनियादी मसाइल में भी उनके पांव मुझे लड़खड़ाते नज़र आये, जिनके ऐनक से मैंने तक़दीर (भाग्य) के मसले को देखा तो ये देखकर आंखें फटी रह गयीं कि ये तो तक़रीबन वही ऐनक है जिसको तक़रीबन डेढ़ हज़ार साल पहले फिर्क़ा ‘‘जबरिया’’ ने ईजाद किया था, जिसको लगाकर देखने से इंसान मजबूर महज़ और एक कटपुत्ली नज़र आता है मतलब ये कि इंसान जो कुछ भी अच्छे बुरे आमाल अंजाम देता है चाहे क़तल ही क्यों न हो वो उसके अख़्तियार में नहीं होता है बल्कि ‘‘नऊज़ु बिल्लाह’’ अल्लाह तआला उससे ये सब करवाता है। ये अल्लाह पर बहुत बड़ा बोहतान (झूठ) है।
जैसे जैसे मैं ये सब सुन रहा था वैसे वैसे हैरत कम और अफ़सोस ज़्यादा हो रहा था कि ये नई पीढ़ी किस मक़ाम पर खड़ी है, और अगर भविष्य में ऐसे लोगों के पांव कभी लड़खड़ाते हैं या ईमान डगमगाता है और लड़कियां ग़ैर मुस्लिमों के साथ भागकर शादी रचाती हैं तो मैं नहीं समझता कि इसमें कोई बहुत अचंभे की बात हैं। दरअसल जिस इमारत की बुनियाद की मज़बूत ना हो तो उसका आंधी और तूफान से गिरना ज़ाहिर है, फिर भी मैंने हर मुमकिन तरीक़े से उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन ये कोई पंसिल का लिखा नहीं था जो सैकेंडों में रबर से मिटा दिया जाए बल्कि ये दिल की तख़्ती पर लिखी हुई वो तहरीर थी जिसकी सियाही को सूखे सालों बीत चुके थे और जिसका अस़र उनके अमली ज़िन्दगी में इस तरह नज़र आता था कि बस अल्लाह की पनाह!
ख़ैर मैं तो वहां से चला आया लेकिन इन दो वाक़ियों ने सोचने पर मजबूर ज़रूर कर दिया कि अगर अभी से इस फ़ित्ने को कुचलने के लिए कोई तदबीर अख़्तियार न की गयी और इस नई नसल की हिफ़ाज़त के लिए कोई ऐसा काम न किया गया तो आने वाले ज़माने में हमारी इस नई पीढ़ी का क्या होगा?
ख़ुलासा-ए-कलाम (सारांश):
मैं इंग्लिश मीडियम के बिल्कुल खि़लाफ नहीं और न ही दुनियावी तालीम के मुख़ालिफ़ हूँ बल्कि आप अपने बच्चों को शौक़ से पढ़ाऐं, बेहतर से बेहतर शिक्षा दें, लेकिन अल्लाह के लिए उनकी फानी ज़िन्दगी की वजह से उनकी हमेशा बाक़ी रहने वाली ज़िन्दगी को बर्बाद न करें, दुनियावी तालीम के साथ साथ उनकी दीनी तालीम का भी बन्दोवस्त करें, कम से कम शरीयत की बुनियादी और वाजबी इल्म से उन्हें आरास्ता करें, बचपन से ही उनके दिलों में इस्लाम की हक़्क़ानियत, आफ़ाक़ियत और अज़मत का एहसास बढ़ाऐं, उनकों झूठी कहानियों के बजाए अम्बिया व सहाबा-ए-किराम के सच्चे और बहादुरी भरे क़िस्से सुनाकर उनके दिलों में ईमान की मुहब्बत पैदा करें, विशेष रूप से लड़कियों को बताऐं कि शरीयत में उनका क्या मक़ाम है, वो इस्लाम की शहज़ादियां हैं। तब कहीं जाकर इंग्लिश मीडियम में उनका दाखि़ला करवाऐं, वरना इसके बग़ैर इंग्लिश मीडियम में उनका दाखि़ला उनको जान बूझ कर अंधे कुऐं में धकेलने के बराबर है। नीज़ ये बात हमेशा याद रहे कि जब बड़े बड़े मुत्तक़ी और परहेज़गार इंसान फित्नों का शिकार होकर इल्हाद (नास्तिकता) की राह पर चल सकते हैं तो फिर आपके बच्चे क्या चीज़ हैं इस लिए अपने बच्चों को ये दुआ ज़रूर याद सिखाऐंः ‘‘या मुक़ल्लिबल क़ुलूब सब्बित क़ल्बी अला दीनिका’’ तर्जुमा: ऐ दिलों के फेरने वाले मेरे दिल को अपने दीन पर जमा दे।
फिक्री जंग:
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ब्रेन वाशिंग को आसान शब्दों में यूं कह सकते हैं कि ‘‘पट्टी पढ़ाना’’। जैसे हर इलेक्शन से पहले नेता जो रेलियां निकालते हैं और जो भाषण देते हैं जिसमें लोगों से बड़े बड़े वादे किये जाते हैं, अपनी पार्टी की अच्छाई बया करने के लिए अपोज़ीशन में मौजूद पार्टियों की छोटी से छोटी ग़लती को भी राई का पहाड़ बनाकर पेश किया जाता है और अपनी ग़लतियों को तो बयान तक नहीं करते तो ये सब भी ब्रेन वाशिंग के दायरे में आते हैं।
अब असल विषय की तरफ आते हैं, मुस्लिम मुआशरे में इल्हाद (नास्तिकता) का रस जिस चालाकी और ख़ुफिया तरीक़े से घोला जा रहा है, आम इंसान इसको समझ नहीं सकता, जैसे- मुझे बख़ूबी याद है कि हमें बचपन में कोर्स की किसी किताब में नज़रिया-ए-इर्तिक़ा पढ़ाया गया था हालांकि आप हैरत करेंगे कि वो एक मुस्लिम स्कूल है और टीचर्स भी सारे मुस्लिम हैं। र्सिफ इतना ही नहीं बल्कि पढ़ाने वाले ने पढ़ाते वक़्त ये कहा तक नहीं कि ये एक बातिल अक़ीदा है, इसी वजह से में भी ये समझने लगा था कि ये अक़ीदा दुरूस्त है और इंसान पहले बंदर ही था।
ग़ौर करें, कि बचपन से ही मुसलमान बच्चों ओर बच्चों की ब्रेन वाशिंग की जा रही है बल्कि इससे भी आगे बढ़कर शुरू से ही उनके ज़ेहन में ग़लत और बातिल अक़ाइद उंडेले जा रहे हैं, जो आगे चलकर राहे इल्हाद (नास्तिकता) का राही बनने में काफी मददगार और उपयोगी साबित होते हैं।
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