Virtue of Muharram Part 05 : फ़ुज़ूल ख़र्ची बेहूदा हरकत


बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

प्रिय पाठकों, अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! इस लेख में कुछ ज़रूरी सच्ची बातें अनमोल बातें माहे मुहर्रम में होने वाली फ़ुज़ूल ख़र्ची के बारे में बताया गया है। चुनांचे, आप हज़रात से गुज़ारिश है कि इस लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, और दूसरों को भी पढ़कर सुनाऐं, अल्लाह तआला मुझे और आप सभी हज़रात को शिर्क व बिदअत और ख़ुराफातों से बचने की तौफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन!

जैसा कि अल्लाह तआला ने दूसरी जगह इरशाद फरमाया हैः

اَمۡ لَہُمۡ شُرَکٰٓؤُا شَرَعُوۡا لَہُمۡ مِّنَ الدِّیۡنِ مَا لَمۡ یَاۡذَنۡۢ بِہِ اللّٰہُ

‘‘अम लहुम शुराकाऊ शरऊ लहुम मिनद् दीनि मालम यअज़न बिल्लाहु’’ (सूरह शूरा : 21)

‘‘क्या उनके ऐसे शरीक हैं, कि उन्होंने उनके वास्ते दीन की ऐसी राह निकाली है, जिस का हुक्म अल्लाह तआला ने नहीं दिया।’’

पस ऐ मेरे अज़ीज़ो और बुज़ुर्गो! अल्लाह तआला के लिए आँखें खोलो, और होश दुरूस्त करो, और ऐसा जहन्नमी बातों व कामों से तौबा करो वरना तुम्हारे लिए वही वईद तैयार है जो अल्लाह तआला फरमाता हैः-

قُلۡ ہَلۡ نُنَبِّئُکُمۡ بِالۡاَخۡسَرِیۡنَ اَعۡمَالًااَفَحَسِبَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡۤا اَنۡ یَّتَّخِذُوۡا عِبَادِیۡ مِنۡ دُوۡنِیۡۤ اَوۡلِیَآءَ ؕ اِنَّـاۤ اَعۡتَدۡنَا جَہَنَّمَ لِلۡکٰفِرِیۡنَ نُزُلًا, قُلۡ ہَلۡ نُنَبِّئُکُمۡ بِالۡاَخۡسَرِیۡنَ اَعۡمَالًا, اَلَّذِیۡنَ ضَلَّ سَعۡیُہُمۡ فِی الۡحَیٰوۃِ الدُّنۡیَا وَ ہُمۡ یَحۡسَبُوۡنَ اَنَّہُمۡ یُحۡسِنُوۡنَ صُنۡعًا, اُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا بِاٰیٰتِ رَبِّہِمۡ وَ لِقَآئِہٖ فَحَبِطَتۡ اَعۡمَالُہُمۡ فَلَا نُقِیۡمُ لَہُمۡ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ وَزۡنًا

‘‘अ’फ’ हसिबल्लाज़ीना कफरू अंय्यत्तखि़ज़ु इबादि मिन दूनी अवलियाअ इन्ना अअतद्ना जहन्नमः लिल काफिरीना नुज़ुला, क़ुल हल नुनब्बिउकुम बिल अख़्सरीनः अअमाला, अल्ल़ज़ीनः ज़ल्लः सअयुहुम फिल हयातिद्दुनिया व हुम यह्सबूनः अन्नहुम युहसिनुनः सु़नआ, उलाइकल्लज़ीनः कफरू बि आयाति रब्बिहिम व लिक़ाइही फ‘ हबितत अअमालुहुम फ़ला नुक़ीमु लहुम यउमल क़ियामति वज़्ना’’ (सूरह कह्फ़: 102-105)

‘‘क्या काफिरों ने ये ख़्याल कर रखा है कि वो मेरे सिवा मेरे बन्दों को अपना वली व हिमायती बना लेंगे, हम उनको छोड़ देंगे हरगिज़ नहीं, हमने उन काफिरों के लिए दोज़ख़ को मेहमानी की जगह बनाया है, ऐ हमारे नबी! आप उन लोगों से फ़रमा दीजिए कि क्या मैं तुम को बहुत ज़्यादा नुक़सान वाली जमाअत बताऊँ, वो लोग हैं जिनकी कोशिश दुनिया की ज़िन्दगी ही में बेकार हो जाती है और वो ये समझते हैं कि हम अच्छा काम कर रहे हैं, ये लोग अपने रब की आयतों (अहकाम) का इंकार करते हैं, हालांकि उसकी मुलाक़ात के भी मुनकिर होते हैं, पस उनके आमाल बेकार हो जाते हैं, हम उनके लिए क़यामत के दिन आमाल की मीज़ान भी खड़ी न करेंगे। बल्कि यूँ ही जहन्नम में झोंक दिये जायेंगे।’’

इस आयत का मतलब बिल्कुल वाज़ेह है कि बहतीरे ऐसे लोग हैं कि फुज़ूल और लग़ु हरकत करके उसे अच्छा काम तसव्वुर करते हैं, जैसे ताज़िया बनाने वाले ताज़िये को बहुत मुतबर्रूक और अच्छा समझते हैं, हालांकि इनकी सारी कोशिश राएगां और बर्बाद हैं। इस ताज़िये में अलावा कुफ्र और शिर्क के माल की बर्बादी भी है कि हर साल लाखों रूपया इस लग़ु (बेहूदा) काम में फुज़ूल में ख़र्च करते हैं। ख़ुद ही ग़ौर कीजिए कि ताज़ियादारी में हर साल सिर्फ दस रोज़ के लिए बांस और लकड़ी कितनी ख़र्च होती है, और काग़ज़ कितना ख़र्च होता है, और डोरी, रस्सी वग़ैरा कितनी लगती है, और इसके पीछे क़ीमती वक़्त कितना बर्बाद होता है। रूपया पैसा कितना ख़र्च होता है अगर इसका अंदाज़ा किया जाए तो लाखों रूपये निकलेगा, ये सब फुज़ूल ख़र्ची नहीं तो और क्या है, क्या इससे इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु की रूहे मुबारक ख़ुश होती है? या इससे क़ौम व मिल्लत को कुछ फ़ायदा पहुँचता है, ऐसी फुज़ूल ख़र्ची का अल्लाह तआला ज़रूर हिसाब लेगा और वो इस लग़ु हरकत को पसन्द भी नहीं करता, इन्नल्लाह ला युहिब्बुल मुस्रिफ़ीन!

चुनांचे अल्लाह तआला क़ुरआने मुक़द्दस में फ़रमाता हैः

اِنَّ الۡمُبَذِّرِیۡنَ کَانُوۡۤا اِخۡوَانَ الشَّیٰطِیۡنِ

‘‘इन्नल मुबजि़्ज़रीनः कानु इख़्वानश शयातीनि’’ (सूरह बनी इस्राईल : 27)

‘‘फ़ुज़ूल ख़र्ची करने वाले शैतान के भाई हैं।’’

अल्लाहु अकबर! जितना रूपया इस लग़ु व बेहूदा हरकत में ख़र्च होता है अगर यही रूपया पैसा हर साल क़ौम की तालीम व तरबियत में ख़र्च होता, यानी इस रूपये से दीनी उलूम के मदारिस हर शहर व देहात में खेल दिये जाते तो इस्लाम को किस क़दर फ़ायदा पहुँचता, अगर यही रूपया स़नअत व हि़र्फ़त (कारोबार) में लगा कर मदरसे और कारख़ाने खोले जाऐं तो क़ौम का इफ़लास (ग़रीबी) दूर हो, गदागिरी (भीक मांगना) और बेहुनरी दुनिया से मादूम (ख़त्म) हो जाए, अगर यही रूपया यतीम ख़ानों और मुसाफ़िर ख़ानों की तामीर में ख़र्च हो तो क़ौम को किस क़दर आराम व आसाइश नस़ीब हो, अगर यही रूपया मौलवियों और वाइज़ों के लश्कर तैयार कराने में ख़र्च किया जाये, और इन वाइज़ों और मौलवियों को मुल्क ब मुल्क इशाअत के लिए भेजा जाऐ जैसा कि ईसाइयों की जानिब से पादरी भेजे जाते हैं तो दीने मुहम्मदी को किस क़दर तरक़्क़ी रस़ीब हो, अगर यही रूपया ख़र्च करके हर मुल्क की ज़बान में मज़हबी किताबें तर्जुमा करायी जायें और हर मुल्क की ज़बान में इस्लामी जराइद और रिसाले निकाले जाऐं तो कितने जाहिल राहे रास्त पर आ जाऐं, और कितने नावाक़िफ़ अपने दीने इस्लाम से वाक़िफ़ हो कर अल्लाह तआला और रसूल (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) को पहचान ने लग जाऐंगे। काश! आज हम इन बातों को समझ जाते तो शायद आज हमें इस तरह के दिन नहीं देखने पड़ते। काश!

अल्लाह तआला हम सभी को पढ़ने से ज़्यादा अमल की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये, आमीन!
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