बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!
प्रिय पाठकों, अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! इस लेख में कुछ ज़रूरी सच्ची बातें अनमोल बातें नज़्म की शक्ल में पेश की जा रही हैं, जिसमें सूरह तौबा की आयत नम्बर 36 की तफ़सीर और जनाब मौलाना हाली मरहूम का फरमान नज़्म की शक्ल में आप मुलाहज़ा फरमायेंगे। अतः आप हज़रात से गुज़ारिश है कि इस बे सनद और लायानी बातें लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, और दूसरों को भी पढ़कर सुनाऐं, अल्लाह तआला मुझे और आप सभी हज़रात को शिर्क व बिदअत और ख़ुराफातों से बचने की तौफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन!
मौलाना हाली मरहूम ने क्या ही ख़ूब फरमाया हैः
करे ग़ैर गर बुत की पूजा तो काफिर
जो ठहराऐ बेटा, ख़ुदा का तो काफिर
झुके आग पर बहरे सजदा तो काफिर
कवाकिब में माने करिश्मा तो काफिर
मगर मोमिनों पर कुशादा हैं राहें
परिस्तिश करें शौक़ से जिसकी चाहें
नबी को जो चाहें अल्लाह कर दिखाऐं
इमामों का रूतबा नबी से बढ़ाऐं
मज़ारों पे दिन-रात नज़रें चढ़ाऐं
शहीदों से जा जाके माँगें दुआऐं
न तौहीद में कुछ ख़लल इससे आऐ
न इस्लाम बिगड़े न ईमान जाऐ
वो दीन जिससे तौहीद फैली जहाँ में
हुआ जलवा गर हक़ ज़मीनो ज़मां में
रहा शिर्क बाक़ी न वहमो गुमां में
वो बदला गया आके हिन्दुस्तां में
हमेशा से इस्लाम था जिस पे नाज़ां
वो दौलत भी खो बैठे आखि़र मुसलमां
अब सूरह तौबा की आयत नं0 36 की तफ़सीर इस नज़म में मुलाहज़ा फरमाऐंः
सूरह तौबा में फरमाता है रब
साल अन्दर चार हैं माहे अदब
वो महीने हैं बहुत बा एहतिराम
क़त्ल व जंग व ज़ुल्म इनमें है ह़राम
चार में माहे मुहर्रम भी है एक
बल्कि सन का माहे अव्वल है ये नेक
पर मुहर्रम में है अब ज़ुल्मे अज़ीम
शोर व शन बरपा है और शिर्के अमीम
ये जो जारी है ना रस्मे ताज़िया
साथ बाजा, और मातम, मसिऱ्या
बाँस व काग़ज़ की है मसनूयी ज़रीह
पस बनाम ताज़िया बुत है स़रीह
इससे बरपा है बड़ा शोरो शरार
शिर्क में हैं मुबतला सदहा हज़ार
रूनुमा है मुल्क में फ़ितना फ़साद
जागज़ीं हैं क़ल्ब में बुग़्ज़ व इनाद
है ये एक मेला गुनाहों की बिना
करते हैं दिन-रात में कितने ज़िना
सने मुहर्रम ही से जागता है गुनाह
याँ शुरू सन से है शिर्क व ज़िना
क्या न पूरा साल तब मनहूस है
क्या नहीं नाराज़ वो क़ुद्दूस है
जब मुस़ीबत में थे वाँ हज़रत इमाम
तब ये कैसा ढोल ताशा व धूम-धाम
ढोल ताशा रंग व रोनके रोशनी
ग़म में है ये दोस्ती या दुश्मनी?
क्यों मुहर्रम में है ये रंग व ख़ुशी
क्या न इसमें चाहिए थी ख़ामोशी
रंज में कैसा ये सामाने ख़ुशी
सच तो ये है कि सरासर सर्कशी
है बड़ा अंधेर और हैरत की बात
वां मुस़ीबत, यां हो सामाने बरात
जब कि है ये रंज व मातम का मक़ाम
ढोल ताशे का यहाँ फिर क्या है काम
ढोल ताशा है रवा ग़म में कहीं
जब कि शादी तक में वो जायज़ नहीं
बाजा गाजा ग़म में जायज़ है अगर
क्यों न दिखला दें बजा के अपने घर
क्यों नहीं इंसाफ करते हैं सभी
ग़म में अपने घर बाजा बजा कभी
है सरासर दुश्मनी और सरकशी
ग़म के पर्दे में मनाते हैं ख़ुशी
ढोल ताशे से मनाते हैं ग़मी
हैं अजीब उल्टी समझ के आदमी!
क्या ज़लालत है मुसलमान क़ौम में
बाजा बजता है ग़मी के योम में
ज़ुल्म उसका हो चुका बस एक बार
अब ये ज़ालिम कर रहे हैं बार-बार
ज़ल्म में बदनाम नाहक़ है यज़ीद
सौ गुना है इेिससे ज़ालिम मज़ीद
करते हैं हर साल हिन्दु नक़ले राम
तर्क करते हैं तमाशा-ए-इमाम
उनकी दसवीं तो है नक़ल फ़त्हे राम
इनकी दसवीं नक़्शा-ए-क़त्ले इमाम
हैफ़ उनको शर्म कुछ आती नहीं
ऐसा मुश्रिक तक नहीं करते कहीं
ताज़ियादारी सरासर शिर्क है
शिर्क से भी बढ़कर इसमें चर्क है
यानी अव्वल शिर्क फिर हुजूमे इमाम
दोस्तो है ग़ौर व इबरत का मक़ाम
नक़ल ये जो है मुहर्रम में तमाम
दर हक़ीक़त है ये सब हुजूमे इमाम
हैं बहुत दुनिया-ए-इस्लामी में रूसूम
पीर व बिदअत परिस्तारे रूसूम
हिन्दुओं को कहते हैं काफिर पलीद
कुफ्र अपना पर नहीं इन पर पदीद
कुछ हैं हिन्दू भी शरीके ताज़िया
आह! इनका हो वहाँ कैसा तस़फ़ीया
एक तो पहले ही थे वो बुत परस्त
दूसरे अब बन गऐ तर बुत परस्त
वो मस़ल है उनकी इस तकरीम पर
इक करेला दूसरे फिर नीम पर
बख़्श दे औरों को मुमकिन है ग़फ़ूर
ताज़िया साज़ों की बख़्शाइश है दूर
गर चे ये तहरीर हक़ लगती हो मर
दोस्तों! पर दर हक़ीक़त है ये दर
ऐ मुसलमानो! सुनो हक़ का पयाम
चन्द रोज़ा है ये दुनिया का क़याम
क्यों न कीजिए उस अल्लाह की बन्दगी
जिसको हासि़ल है सदा पायन्दगी
जिसने पैदा की है सारी आफ़रीन
चाँद, सूरज, आमान व सर ज़मीन
बुत परस्ती काफिरों का काम है
हक़ परस्ती शेवा-ए-इस्लाम है
पस दुआ कर क़लम, ख़त्मे कलाम
दे ख़ुदावंदा हिदायत वस्सलाम
अल्लाह तबारक व तआला ऐसे ही लोगोें के बारे में फरमाता हैः
وَ مَا یُؤۡمِنُ اَکۡثَرُہُمۡ بِاللّٰہِ اِلَّا وَ ہُمۡ مُّشۡرِکُوۡنَ
‘‘वमा युअमिनु अक्स़रूहुम बिल्लाहि इल्ला वहुम मुश्रिकून’’ (सूरह यूसुफः 106)
‘‘यानी अक्स़र लोग ईमान लाने के बाद भी शिर्क के काम करते हैं।’’
मुश्रिकीने अरब व कुफ्फारे मक्का भी अपने बुज़ुर्गों की इस तरह की ताज़ीम व तकरीम करते और उनके नाम की नज़र व नियाज़ करते, और उनकी यादगार क़ायम करने के लिए मूर्तें बना के घरों और काबा में नस़ब करते और ज़रूरत के वक़्त उनके नाम लेकर पुकारते थे,
अल्लाह तआला उनके इस अमल की तर्दीद करके फरमाता हैः
وَ یَعۡبُدُوۡنَ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ مَا لَا یَضُرُّہُمۡ وَ لَا یَنۡفَعُہُمۡ وَ یَقُوۡلُوۡنَ ہٰۤؤُلَآءِ شُفَعَآؤُنَا عِنۡدَ اللّٰہِ ؕ قُلۡ اَتُنَبِّئُوۡنَ اللّٰہَ بِمَا لَا یَعۡلَمُ فِی السَّمٰوٰتِ وَ لَا فِی الۡاَرۡضِ ؕ سُبۡحٰنَہٗ وَ تَعٰلٰی عَمَّا یُشۡرِکُوۡنَ
‘‘व यअबुदूनः मिन दूनिल्लाहि माला यज़ुर्रूहुम वला यनफउहुम व यक़ूलूनः हाउलाइ शुफाआउना इन्दल्लाहि अतुनब्बिऊनल्लाहः बिमा ला यअलमु फ़िस्समावाती वला फ़िल अर्ज़ि सुब्हानहू व तआला अम्मा युश्रिकूनः’’ (सूरह यूनुस: 18)
‘‘मुश्रिकीन अल्लाह के सिवाए ऐसी चीज़ों को पूजते हैं जो उनको नफ़ा और नुक़सन नहीं पहुँचा सकतीं, और कहते हैं कि ये हमारी सिफ़ारिश अल्लाह तआला के पास करेंगे, ऐ नबी! तुम उनसे कह दो कि तुम अल्लाह को वो चीज़ बताते हो, जिसका वुजूद आसमान व ज़मीन में नहीं है, वो पाक है, और उन लोगों के शिर्क से उसकी ज़ात बालातर है।’’
इस आयते करीमा से ये बात बख़ूबी वाज़ेह हुई कि मुश्रिकीन अपने बुज़ुर्गों की तस्वीरों, मूरतों, क़ब्रों वग़ैरा ऐसी चीज़ों को पूजते थे, जिनकी अगर परिस्तिश छोड़ दी जाऐ तो कुछ नुक़सान नहीं पहुँचा सकतीं, और अगर इबादत की जाये तो कुछ फायदा नहीं पहुँचा सकतीं, लेकिन बावजूद इसके कहते हैं कि इन बुज़ुर्गों की तस्वीरें, मूरतें, क़ब्रों और थानों की परिस्तिश करते हैं, और इनकी रूह ख़ुश होकर हमारी सिफ़ारिश करे, और हमारे मस़ाइब व मुश्किलात दूर हों, तिजारत व ज़राअत वग़ैरा में तरक़्क़ी हो, और औलाद हासि़ल हो, लेकिन अल्लाह तआला ने उनके अक़ीदे की पुर ज़ोर तरदीद करके फ़रमायाः कि क्या ये लोग अल्लाह तआला से ज़्यादा जानने वाले हैं कि अल्लाह तआला को वो चीज़ बताना चाहते हैं कि जिसका वुजूद आसमान व ज़मीन में नहीं है और ज़ाहिर है कि अल्लाह तआला से ज़्यादा जानने वाला कोई नहीं, अगर इनका वुजूद होता तो अल्लाह तआला को ज़रूर मालूम होता, लिहाज़ा इन चीज़ों का कोई वुजूद नहीं, और ये सब बे सनद और लायानी बातें हैं।
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