Virtue of Muharram Part 03 : बुत पूजा तो काफिर ढाँचा पूजा मुसलमान



बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! मेरे इस्लामी भाईयों, आज माहे मुहर्रम की फ़ज़ीलत Part 03 के बारे में कुछ ज़रूरी सच्ची बातें अनमोल बातें पेश कर रहा हूँ, जिसमें जिसमें मुहर्ररम के ताज़िया का इतिहास (History of Taziya of Muharram) और इसके (Inventors of Muharram Taziya) मुहर्ररम के ताज़िये को ईजाद करने वालों के बारे में बताया गया है एवं इसके अतिरिक्त मुहर्रम के ताज़िया (Taziya of Muharram) में जो ढांचे (Structure) की पूजा की जाती है और दशहरा यानी रामलीला (Dashehra Ramlila) में जो बुत (Statue) की पूजा की जाती है तो इन्हीं दोनों में फ़र्क़ अंतर (Difference) भी बताया गया है और क़ुरआन मजीद से मुहर्रम के ताज़िया (Taziya of Muharram) की तरदीद की गयी है. अतः आप हज़रात से गुज़ारिश है कि इस लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, और दूसरों को भी पढ़कर सुनाऐं, अल्लाह तआला मुझे और आप सभी हज़रात को अमल की तौफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन! Now, Let’s start...

बुत की पूजा तो काफिर ढाँचे की पूजा तो मुसलमान…?

(1) तारीख़े ताज़िया और मोजिदे ताज़िया

पस इन रस्मों का पता न क़ुरआन व हदीस में है, और न सहाबा-ए-किराम और अइम्मा-ए-अहले बैत की तालीमे मुक़द्दस में है, बल्कि इस ताज़िया और इन रस्मों के मोजिद क़ातिलान-ए-हुसैन शिया हज़रात ही हैं जैसा कि अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती रहमतुल्लाह अलैह ‘‘तारीख़ अल-ख़ुलफा’’ जिल्द अव्वल सफ़ा-165 में मुती बिल्लाह अल-क़ासिम के अहवाल में मुअजि़्ज़ल दौला शिया का ज़िक्र करते हुए लिखते हैंः

सन् 341 हि0 में एक क़ौम जो तनासुख़ (रूह का किसी इंसान के अन्दर समा जाना) की क़ाइल थी ज़ाहिर हुयी, उनमें से एक नौजवान शख़्स ने दावा किय, कि हज़रत अली रज़िअल्लाहु अन्हु की रूह उसके अन्दर हुलूल कर आयी है, और उसकी बीवी ने दावा कि हज़रत फातिमा रज़िअल्लाहु अन्हा की रूह उनके अन्दर हुलूल कर आयी है और उसी जमाअत के एक शख़्स ने दावा किया, कि मैं बज़ाते ख़ुद जिब्राइल हूँ, जब ये अनोखी ख़बर उस दौर के ख़लीफा तक पहुँची तो तीनों को ताज़ीर व तश्हीर (सज़ा) का हुक्म दिया, तब उस क़ौम ने मक्र व धोके से काम लेकर अपने को अहले बैत की तरफ मंसूब कर दिया, ताकि उस सज़ा से बच जायें, मुइज़्ज़ल दौला शिया ने बहुत सिफारिश करके तीनों को बरी करके बड़े बड़े मरातिब व मनासिब तक पहुँचा दिया इसी शरारत के सबब मुइज़्ज़ल दौला की निस्बत इमाम सुयूती रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं ‘‘हाज़ा मिन अफ्आलिहिल मलऊनति’’ यानी ये उसके लानती कामों में से है।’’

आगे चल कर इसी किताब के जिल्द अव्वल सफा 166 पर तह़रीर फ़रमाते हैं कि 351 हि0 में शियों ने बग़दाद की मस्जिदों के दरवाजों पर ये इबारत लिख दीः

‘‘लअनतु मआवियतः मन ग़स़बः फ़ातिमतः हक़्क़हा मिन फिदकः व मन मनअल हसनः अन युदफनः मअ जद्दिही व मन नफा अबा ज़र्रिन’’

रात को किसी ने मिटा दिया, लेकिन मुइज़्ज़ल दौला ने इस काम के लिए रग़बत दिलायी कि दोबारा वही इबारत लिखी जाये तो वज़ीर मुहल्लिबी के मशवरे से ये इबारत लिखी गई।

‘‘लअनल्लाहुज़्ज़ालिमीनः लआलि रसूलिल्लाहि सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लमः’’

मगर हज़रत मुआविया रज़िअल्लाहु अन्हु पर लान-तान ख़ूब ज़ाहिर किया गया, इसके बाद इसी किताब के जिल्द अव्वल सफा 278 पर अल्लामा सुयूती रहमतुल्लाह अलैह तह़रीर फ़रमाते हैं कि:

सन् 352 हि0 में मुइज़्ज़ल दौला ने लोगों पर लाज़िम व वाजिब कर दिया कि आशूरा के दिन तमाम दुकानें और बाज़ार बन्द कर दिये जायें, ख़रीद व फ़रोख़्त मुतलक़ न करें, नानबाई और बावर्ची तन्दूर न लगाऐं और दाल रोटी वग़ैरा न पकाऐं और बाज़ारों में क़ुबाब (गुम्बद) को नसब कर दिया, जिनके ऊपर टाट कपड़ा वग़ैरा चढ़ा हुआ था, औरतें बाल खोले अपने मुंह पर तमाचे मारती और सीनों पर घूँसे माती हुईं मर्सिये, नौह़े पढ़ती हुईं गलियों बाज़ारों में गश्त लगाऐं और इमाम हुसैन पर मातम करें, ये पहला दिन है कि बग़दाद में ये रस्म अदा की गयी, और ये बिदअत सालों जारी रही।

इस इबारत से ये मालूम हुआ कि ताज़िया मुइज़्ज़ल दौला शिया के हुक्म से बना, मातमदारी व गिर्या व ताज़ियादारी अदा की गयी और ईजाद हुयी, इसके बाद उसके लड़के इज़्ज़ुल दौला ने अपने बाप की गद्दी संभाल ली और मज़हबे शिया इमामिया की तरवीज की, उसी ने ख़ुत्बा-ए-अब्बासिया को अपनी राय से काट कर ये ईजाद कियाः

‘‘अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिल मुस्तफा व अला अलीइल मुर्तज़ा व अला फातिमालि बतूलि व अलल हसनि वल हुसैनि सिब्तिर्रसूलि व सल्लि अलल अइम्मति अबनाहि अमीरिल मुअमिनीनः व मुइजि़्ज़ल दौलति’’ (तख़रीज: अल-ख़ुलफा लि इब्ने कस़ीर जिल्द-1 सफा-167)

और अज़ान में ये किलमात बढ़ाया: ‘‘हय्या अला ख़ैरिल अमलि’’ ये बिदअते सइया तमाम दमिश्क़ में फैल गयी क्योंकि इसका मुईन व मददगार जाफर बिन फल्लाह हो गया था, चूँकि इनान की हुकूमत उसके हाथ में थी, इस लिए किसी को इंकार की गुंज़ाइश न थी।

मज़ीद तशरीह ‘‘तारीख़ अल-ख़ुलफा’’ में मुलाहिज़ा फरमायें, हमारा मक़सूद तो सिर्फ आग़ाज़े ताज़ियादारी था, वो यहाँ पर बक़द्रे ज़रूरत लिख दिया गया, कि इस बिदअते सइया का मोजिद मुइज़्ज़ल दौला शिया और मददगार उसका पिसर इज़्ज़ुल दौला और मददगार उसका नाइब जाफ़र बिन फल्लाह हुए, और हदिया-ए-मजीदिया, तोहफा इस्ना अश्रिया के तर्जुमे में है कि मुख़्तार बन उबैद शिया ने बनाम ताबूते सकीना जनाब अमीर की कुर्सी की परिस्तिश शुरू की, हालांकि ये कुर्सी जनाब अमीर की न थी बल्कि तुफेल बिन जादा किसी रोग़न फरोश की दुकान से उठा लाया था। (तख़रीज: हदिया-ए-मजीदिया सफा – 42)

अल्लामा अब्दुल करीम शहर सुतानी रहमतुल्ला अलैह ‘‘अल-मिलल वल निहल’’ सफा 84 पर इस कुर्सी की बाबत तह़रीर फ़रमाते हैं कि वो एक पुरानी कुर्सी थी, जिस पर मुख़्तार ने रेशमी ग़िलाफ चढ़ाकर ख़ूब आरास्ता पैरास्ता करके ज़ाहिर किया ये हज़रत अली रज़िअल्लाहु अन्हु की तोशा ख़ाना से मिली है, जब किसी दुश्मन से जंग करता तो उसको सफे अव्वल में रख कर लश्कर से कहता बढ़ो और क़त्ल करो, फतह व नुसरत तुम्हारे शामिले ह़ाल है, ये ताबूते सकीना तुम्हारे दर्मियान मिस्ले ताबूते बनी इस्राईल के है इसमें दिल की तस्कीन और फरिश्ते इमदाद के लिए नाज़िल होते हैं। (तख़रीज: अल-मिलल वल निहल सफा 84)

इससे मालूम होता है कि दर असल ताज़ियादारी पहले यहीं से शुरू हुयी, चुँनाचे साहिबे तजि़्करतुल किराम इस इबारत के नक़ल करने के बाद तह़रीर फ़रमाते हैं किः

दर असल ताज़ियादारी की इब्तिदा यहीं से मालूम होती है, जो बाद में बुत परस्ती बन गयी, और हिन्दुस्तान में इस ताज़ियादारी की इशाअत की ये भी वजह बतायी जाती है कि तैमूरी अहद में चूँकि बादशाह, वज़ीर और बेगमात, नीज़ अहले लश्कर शिया थे, और हिन्दुस्तान में सलतनत व जंग के इंतिज़ामात के बाइस हर साल कर्बला-ए-मुअल्ला नहीं जा सकते थे, ये शिकायत बादशाह के गोशे गुज़ार हुयी, तो अमीर तैमूर ने कर्बला से इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु की रोज़ा की नक़ल हासिल कराके उसको ताज़िया की सूरत में तैयार कराया, कि हिन्दुस्तान के शिया उसकी नक़ल के ज़रिये से कर्बला-ए-मुअल्ला की ज़ियारत का स़वाब यहीं से हालिस कर लें। चूँकि यही हुआ, और बजाए कर्बला के उस नक़ल की ज़ियारत होने लगी, जिस ने मकोबेश बहुत जल्द ये सूरत इख़्तियार कर ली, जो अब ये रस्म चली आ रही है, चुँनाचे तलख़ीसे मुरक़्क़ा कर्बला के मुसन्निफ शिया भी रक़म तराज़ हैं कि जौहरी साहब तूफान अल-बका ने अमीर तैमूर का इराक़ में आना, और ज़ियारत करना, और पियादा पा चलना, और वुज़्रा का पियादा रवी से मना करना, और उसका क़ुरआन में फ़ाल देखना और ये आयत ‘‘फख़्ला नालइकः’’ का निकालना, और तबर्रूकात का लाना, और इंफ़ादे ताज़ियादारी ख़ुसूसन हिन्दुस्तान में सब तफ्सील से लिखा है सब जानते हैं। (तख़रीज : मुरक़्क़ा सफा-82)

फिर इसमें बतदरीज बड़ी तरक़्क़ी हुई और अब तो इसके साथ दुलदुल और अलम वग़ैरा भी निकलने लगे, शिया और जाहिल सुन्नी इस ताज़िये के साथ वो सुलूफ करते हैं जो बदर्जा शिर्क को पहुँच जाता है, मौलवी ख़ैरात अहमद वकील शिया ने अपनी किताब ‘‘नूरूल ईमान’’ में आमाले मुहर्रम के उनवान से सफा नं0 332 से 384 तक ताज़िया और इसके मुतअल्लिक़ात पर मुफस्सिल बहस की है, इसमें ये भी दर्ज है कि ताज़िया नक़ले रोज़ा इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु है, उसकी ग़र्ज ये है कि चूँकि हम लोग रोज़ा-ए-मुबारक से दूर बसते हैं, इस लिए ताज़िया के देखने से रोज़ा-ए-मुबारक और वाक़ियाते कर्बला याद आ जायेंगे वग़ैरा वग़ैरा।

(2) ताज़िया की तरदीद क़ुरआन मजीद से

अल-ग़र्ज़ ताज़िया के बानी मबानी, मोजिद व मुईन व मुसद्दिक़ सब शिया क़ातिलाने हुसैन (रज़िअल्लाहु अन्हु) हैं, ये रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम के अरसा दराज के बाद ईजाद हुआ, फिर भी इसको दीन में दाखि़ल कर लिया, ताज्जुब ये है कि ख़ुद ही इसको अपने हाथों से बनाते हैं और ख़ुद ही इससे हाजत रवाई की दुआ करते हैं, इसके सामने सजदा, तवाफ वग़ैरा करते है।।

अल्लाह तआला ने सच फरमायाः

قَالَ اَتَعۡبُدُوۡنَ مَا تَنۡحِتُوۡنَ وَ اللّٰہُ خَلَقَکُمۡ وَ مَا تَعۡمَلُوۡنَ

‘‘क़ाला अताबुदूनः मा तन्हितूनः वल्लाहु ख़लक़कुम वमा तामलूना’’ (सूरह साफ्फात: 95,96)

‘‘यानी क्या तुम उस चीज़ को पूजते हो जिसको ख़ुद तराशते हो हालांकि अल्लाह ने तुम को और तुम्हारे आमाल को पैदा किया है।’’

और इबादत का हक़दार पैदा करने वाला ही होता है, तो ख़ुद इंसाफ कीजिए कि अगर कुफ्फार पत्थरों की मूर्तें तराश कर पूजें तो वो मुश्रिक कहलाऐं और अगर मुसलमान काग़ज़ और तीलियों का ढांचा बनाकर इबादत करें तो पक्के मुसलमान कहलाऐं।
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