Virtue of Muharram Part 02 : एक वहम ताज़िया और दशहरा


बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! मेरे इस्लामी भाईयों, आज मैं माहे मुहर्रम की फ़ज़ीलत भाग 02 के बारे में कुछ ज़रूरी सच्ची बातें अनमोल बातें पेश कर रहा हूँ, जिसमें ताज़िया की तारीफ (परिभाषा) Definition of Taziya, मुहर्ररम के ताज़िया और दशहरा (रामलीला) (difference between Taziya of Muharram and Dashehra (Ramlila) में फ़र्क़ बताया गया है। मुहर्ररम में की जाने वाली ख़ुराफ़ात का उल्लेख भी किया गया है अतः आप हज़रात से गुज़ारिश है कि इस लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, और दूसरों को भी पढ़कर सुनाऐं, अल्लाह तआला मुझे और आप सभी हज़रात को शिर्क व बिदअत और ख़ुराफातों से बचने की तौफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन! Now, Let’s start...

एक वहम ताज़िया और दशहरा

(1) ताज़िया की तारीफ (परिभाषा) (Definition of Taziya)

ताज़िया के लुग़वी मायनी किसी मुसीबत ज़दा को तल्क़ीने सब्र करने और तस्कीन देने के हैं, चूँकि किसी का मरना भी उस के वुरसा के लिए एक सख़्त मुसीबत और रंज व ग़म का सबब है, लिहाज़ा तल्क़ीने सब्र को भी ताज़िया कहते हैं, बल्कि अक्स़र इसी पर बोला जाता है, शरीअत में इसके ये मायनी हैं कि किसी के मरने पर सिर्फ तीन दिन ताज़ियत जायज़ है, जिसमें न रोना है, न पीटना, न चीख़ना है, न चिल्लाना, न कपड़ा फाड़ना, न गिरेबान चाक करना, न बाल नोचन, न सीना कूटना और न ज़ानो और रूख़सारों पर हाथ मारना, न इज्तिमा व एहतिमाम और जज़अ व फ़ज़अ की ज़रूरत है, न मय्यत की मदह व ज़म ही हाजत है, जैसा कि अवाम कल अनआम में किसी के मरने के वक़्त देखा जाता है।

लेकिन ये सब ख़ुराफात कुछ ज़्यादती के साथ आज जिस ताज़िये में होती है वो मुहर्रम का ताज़िया है, जिसको इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु की क़ब्र की नक़ल कहा जाता है, यानी बाँस की तीलियों और खपच्चों का एक ढांचा बनाकर उसके ऊपर काग़ज़ और अबरक मंढे जाते हैं, उसके अन्दर एक क़ब्र होती है, जिसके ऊपर चादर चढ़ी होती है, उसके ऊपर गुम्बद सा होता है, उसमें रूपया पैसा कोड़ी, नारियल, मिठाइयाँ और रेवड़ी, बताशे, गट्टे, ग़िलाफ और खिचड़ा पकाकर कूँडों में भर कर चढ़ाते हैं।

हज़ारों मर्द व औरतें उसके पास बा अदब दस्तवस्ता ताज़ीम के लिए खड़े होते हैं, और झुक-झुक कर उसे सलाम व सजदा करते हैं, कोई अपने जान व माल की तरक़्क़ी चाहता है, कोई औलाद मांगता है, अक्सर औरतें ताज़िया के नीचे से इस फ़ासिद ख़्याल से निकलते हैं, और अपने बच्चों को निकालते हैं, कि इमाम साहब की पनाह में आ जायेंगे, और तमाम बलाओं और आफ़तों से महफूज़ रहेंगे, किसी क़िस्म का हमको नुक़सान न पहुँचेगा, हमारी औलाद देर तक ज़िन्दा रहेगी। उसका तवाफ करते हैं, और अपनी ख़ातिर ख़्वाह मुरादें मांगते हैं, कोई कहता है अगर ये काम हो गया तो अगले साल इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु के नाम का ताज़िया बनायेंगे, कोई कहता है अगर मैं या मेरी औलाद फुलां बीमारी से अच्छी हो गयी तो ताज़िया बनाके चढ़ावे चढ़ायेंगे, और कोई हाय हुसैन हाय हुसैन के नारे बुलन्द करके मर्सिया ख़ानी करता है, कोई अलम और सियाह झण्डा लिये हुए खड़ा है, कोई मूरछल झल रहा है ताकि कोई मक्खी न बैठने पाये, कोई ढोल-ताशा बजाकर उछलता कूदता है, कोई गुत्ते से मसनूयी जंग कर रहा है, कोई लकड़ी की तलवार चलाता है, कोई कुश्ती और अखाड़े का जौहर दिखा रहा है, और कहीं सबीलें इमाम हुसैन के नाम की लगायी जा रही हैं, आबख़ूरे रखे हुए हैं, कोई शरबत पिला रहा हैं, आखि़र दसवीं मुहर्रम को बाज़ारों और गली कूचों में फिरा के एक मैदान में ले जाकर दफन कर आते हैं, और कुछ लोग तबर्रूकन अपने घरों में रख छोड़ते हैं।

(2) ताज़िया और दशहरा (रामलीला) में अंतर

अल-ग़रज जिस तरह हिन्दू अपने बुतों और देवताओं की पूजा पाठ करते हैं और ताज़ीम व तकरीम बजा लाते हैं, नज़र व नियाज़ करते हैं, इसी तरह इस्लाम के दावेदार मुसलमान भी साल भर में बीसों मेले लगाते हैं। जिस तरह ये हिन्दू हरदेव और महादेव वग़ैरा की झण्डियाँ, छड़ियाँ बनाते हैं, मुसलमान भी इमाम हुसैन, सय्यद सालार, मदार, क़ुतुब साहेबान की झण्डियाँ और छड़ियाँ बनाकर चढ़ाते हैं, जिस तरह ये हिन्दू अपने बुतों, बुज़ुर्गों और देवताओं के नाम चबूतरे बनाते हैं इसी तरह कुछ मुसलमान भी इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु के नाम के चबूतरे बनाते हैं, जिस तरह हिन्दू रामलीला हर साल बड़े धूम-धाम से करते और निकालते हैं और बाज़ारों में गली कूचों में ढोल-ताशा बजाते हैं, उझलते कूदते-फिरते हैं, बहुत से मर्द और औरतें, बच्चे, जवान और बूढ़े अच्छे-अच्छे लिबास पहन कर मेले में शरीक होते हैं फिर दसवीं तारीख़ को तोड़-फोड़ कर उसे मैदान में फैंक आते हैं, पस बिल्कुल हूबहू कुछ मुसलमान भी इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु अन्हु की क़ब्र की नक़ल यानी ताज़िया बनाकर मुहर्रम की दसवीं तारीख़ को ढोल-ताशे और तरह-तरह के बाजे बजाते हुए और मर्सिया गाते हुए तमाम मर्द और औरतें, बूढ़े, बच्चे, जवान अच्छे-अच्छे क़ीमती लिबास पहन कर ताज़िये के साथ फिरते हैं।

देखिए तो सही हिन्दुओं के यहाँ दशहरा (रामलीला) में दस दिन हैं और ताज़िया परस्तों के हां भी दस दिन हैं, उनके यहाँ एक जंग का ज़िक्र है तो इनके हां भी एक जंग का ज़िक्र है, वो राम-राम कहकर पुकारते हैं और ये कुछ नाम निहाद मुसलमान हुसैन-हुसैन कहकर पुकारते हैं, पस ताज़िया दर असल दशहरा की नक़ल है, जैसा कि मौलाना शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ‘‘तोहफा इस्ना अशरिया’’ बाब ग्यारहवां, शीया के ख़्वास के नोअ शानिज़ वहम में तहरीर फरमाते हैं कि-

किसी चीज़ की सूरत और नक़ल को असल ठहरा लेना ये एक वहम है, और उस वहम ने अक्स़र बुत परस्तों को सीधी राह से बहका कर गुमराही के गढ़े में गिरा दिया है, शीया हज़रात में भी इसी क़िस्म के वहम ने बहुत ग़लबा हासिल कर लिया है, ये लोग हज़रत इमाम हसन व हुसैन, अमीर हज़रत अली और हज़रत फातिमा रज़िअल्लाहु अन्हुम की क़ब्रों की नक़ल बनाकर ख़्याल करते हैं कि ये उन बुज़ुर्गों की नूरानी क़ब्रें हैं, और उसके साथ अज़ हद ताज़ीम करते हैं, बल्कि सजदा भी करते हैं, फातिहा दुरूद व सलाम भेजते हैं, और उनके गिर्दागिर्द मक्खियों को हटाने के लिए मूरछल लिए क़ब्रों के मुजाविरों की तरह खड़े रहते हैं, और ख़ूब शिर्क की दाद देते हैं। समझदार इंसान के नज़दीक उन छोटे-छोटे बच्चों और बच्चियों की हरकतों में जो कपड़े की गुड़िया वग़ैरा बनाकर उनकी शादी रचायी जाती है, तीलियों और काग़ज़ों से उनके मकान, पलंग, ज़ेवर वग़ैरा बनाती हैं और उन ताज़िया बनाने वालों में कोई फ़र्क़ नहीं’’।
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