Virtue of Muharram Part 01 : माहे मुहर्रम की फज़ीलत व बरकत



बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

अस्सलामु अलइकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहू! मेरे इस्लामी भाईयों आज मैं माहे मुहर्रम Muharram के बारे में कुछ ज़रूरी सच्ची बातें अनमोल बातें पेश कर रहा हूँ, जिसमें मुहर्रमुल ह़राम Muharram का ख़ुलासा किया गया है इसके साथ साथ मुहर्रम Muharram की फ़ज़ीलें व बरकतों Virtues and Blessings के बारे में समझया गया है और इस माहे मुहर्रम Virtue of Muharram में की जाने वाली बिदअतों Bidat के बारे में भी बताया गया है। अतः आप हज़रात से गुज़ारिश है कि इस लेख को पूरा ज़रूर पढ़ें, और दूसरों को भी पढ़कर सुनाऐं, अल्लाह तआला मुझे और आप सभी हज़रात को अमल की तौफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन! Now, Let’s start Virtues and Blessings of the month of Muharram. Virtues and Blessings

माहे मुहर्रम की फज़ीलत व बरकत

क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान है कि ‘‘महीनों की गिनती अल्लाह के नज़दीक किताबुल्लाह में बारह है उसी वक़्त से जब से अल्लाह तआला ने आसमान व ज़मीन को पैदा फरमाया, इनमें चार हुरमत व अदब के हैं, यही दुरूस्त दीन है, तुम इन महीनों में अपनी जानों पर ज़ुल्म न करो और तुम तमाम मुश्रिकों से जिहाद करो जैसाकि वो तुम से लड़ते हैं, जान रखो कि अल्लाह तआला मुत्तक़ियों के साथ है।’’ (क़ुरआन सूरह तौबा – 9 , आयत – 36)

(1) हुरमत वाले चार महीने ये हैं –

1. रजब
2. ज़ुल क़ाएदा
3. ज़ुल हिज्जा
4. मुहर्रम

मुहर्रम के महीने को मुहर्रम इसकी ताज़ीम की वजह से कहते हैं, इस लिए चारों महीने अल्लाह के नज़दीक़ हुरमत व ताज़ीम के लाइक़ हैं, इन महीनों में ख़ुसूसियत से अल्लाह तआला के हुक्म के खि़लाफ कोई काम नहीं करना चाहिए, और न कोई गुनाह करना चाहिए, इन महीनों की हुरमत इब्तिदा आफ़रीनश-ए-आलम से है।

इस्लामी साल की शुरूआत इसी मुहर्रमुल ह़राम के महीने से होती है। इस मुबारक महीने में बड़े ही अहम वाक़ियात पेश आये हैं, अल्लाह तआला ने इन्सानियत पर बड़ा रहम फरमाया है, इसी महीने में आसमान व ज़मीन, समुन्द्र, लौहे क़लम, तमाम फरिश्ते, व हज़रत आदम अलइहिस्सलाम को पैदा फरमाया गया और इसी महीने में हज़रत आदम अलइहिस्सलाम की दुआ क़ुबूल हुई, यही वो मुक़द्दस महीना है जिसमें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पैदा हुए, और इसी मुबारक महीने में इब्राहीम अलइहिस्सलाम के हक़ में नमरूद की आग को ठण्डा किया गया, इसी महीने में नूह अलइहिस्सलाम व उन पर ईमान लाने वालों को तूफाने नूह से निजात दी, मूसा अलइहिस्सलाम व उनके मानने वालों को फिरऔन से बचाकर फिरऔन और उसके लशकर को दरिया-ए-नील में डुबो दिया गया, इसी मुबारक महीने में यूनुस अलइहिस्सलाम मछली के पेट से बाहर आये, अय्यूब अलइहिस्सलाम को बीमारी से निजात मिली, इसी महीने में दाऊद अलइहिस्सलाम की तौबा क़ुबूल हुई, हज़रत सुलेमान अलइहिस्सलाम को सलतनत मिली थी, और इसी आशूरा-ए- मुहर्रम में अल्लाह तआला अर्श पर मुस्तवी हुआ, और इसी महीने में क़यामत आयेगी। (गुनियतुत तालेबीन पेज 676)

इस हदीस से आशूरा-ए-मुहर्रम की अहमियत स़ाबित होती है, इस्लाम से पहले के लोग आशूरा-ए-मुहर्रम का रोज़ा रखते थे और इसके ख़ात्मे पर ईद की तरह ख़ुशी मनाते थे। इब्तिदा-ए-इस्लाम में आशूरा का रोज़ा फ़र्ज़ था, जब रमज़ानुल मुबारक का रोज़ा फ़र्ज़ हो गया तक आशूरा-ए-मुहर्रम के रोज़ों की फ़र्ज़ियत मंसूख़ हो गयी, इस्तेहबाब का दर्जा बाक़ी है, जिसका जी चाहे रखे जिसका जी चाहे न रखे। जब रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) हिजरत करके मदीना मुनव्वरा तशरीफ ले गये थे, तो आपने यहूदियों को आशूरा-ए-मुहर्रम का रोज़ा रखते हुए देखा तो फरमाया: कि तुम इस रोज़ क्यों रोज़ा रखते हो? उन्होंने जवाब दिया कि ये हमारी निजात का दिन है, इस दिन अल्लाह तआला ने बनी इस्राईल को फिरऔन से निजात दिलायी, इसी दिन हज़रत मूसा अलइहिस्सलाम ने शुक्रिया में रोज़ा रखा, आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने फरमाया: हज़रत मूसा अलइहिस्सलाम के साथ हम तुम से ज़्यादा मुवाफ़िक़त रखने के हक़दार हैं इस लिए आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने ख़ुद भी रोज़ा रखा और सहाबा-ए-किराम को भी रोज़ा रखने का हुक्म फरमाया।

एक और हदीस जो हज़रत अबू हुरैरा रज़िअल्लाहु अन्हु से मर्वी है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने फरमाया: रमज़ानुल मुबारक के बाद मुहर्रम का रोज़ा रखना ज़्यादा अफ़ज़ल है। (सहीह मुस्लिम 1982, 1983, जामे तिर्मिज़ी 402, सुनन अबी दाऊद 2074, सुनन इब्ने माज़ा 1732, मुसनद अहमद 7683, 8008, 8151, 8178, 10494, सुनन अल-दार्मी 1692, 1693)।

और फरमाया: आशूरा के दिन रोज़ा रखने से एक साल के गुनाह अल्लाह तआला माफ़ फ़रमा देता है। (सहीह मुस्लिम 1976, 1977, सुनन अबी दाऊद 2071, मुसनद अहमद 21492, 21572)।

जब रमज़ान शरीफ के रोज़े फ़र्ज़ हुए तो आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने ऐलान कराया, कि अब आशूरा का रोज़ा ज़रूरी नहीं, जो चाहे रखे जो चाहे न रखे, लेकिन ख़ुद आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने रोज़ा रखा और यहूदियों की मुशाबिहत से बचने के लिए आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने फ़रमाया: कि अगर में आइंदा साल ज़िन्दा रहा तो मुहर्रम की नवीं और दसवीं तारीख़ का रोज़ा रखूँगा मगर आइंदा साल आप मुहर्रम के आने से पहले फ़ौत हो गये, लेकिन ये हुक्म बाक़ी रहा, चुनांचे सहाबा किराम रज़िअल्लाहु अन्हुम ने अमल किया। लिहाज़ा मुहर्रम की नवीं और दसवीं या दसवीं या ग्यारहवीं को दो दिन का रोज़ा रखना चाहिए, सिर्फ एक दिन का रोज़ा न रखें और जोहला में जो ये मशहूर है कि ग्यारहवीं को रोज़ा नहीं रखना चाहिए क्योंकि उस दिन यज़ीद की माँ ने रोज़ा रखा था ये बिल्कुल ग़लत और झूठ है।

आप (सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम) ने फ़रमाया है: आशूरा का रोज़ा रखो, यहूदियों की मुख़ालिफ़त करो, दसवीं के साथ एक दिन और रोज़ा रखो, चाहे एक दिन पहले का हो या एक दिन बाद का हो। (मुसनद अहमद 2047)।

(2) बिदअतें

रोज़े के बदले में लोगों ने इस महीने में बहुत सी नाजायज़ बाते ईजाद कर ली हैं, नौहा और मातम, गिर्याविज़ारी के अलावा ताज़ियादारी की रस्म इसी महीने में अदा की जाती है, जिसका कोई सबूत नहीं है, बल्कि ये खुला हुआ कुर्फ और शिर्क का काम है।
Post Navi

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ