कल क़यामत के दिन आपसे ये नहीं पूछा जाएगा कि मस्जिद में मार्वल, एसी, बेहतरीन क़ालीन और उमदा झाड़ फानूस वग़ैरा लगाए थे या नहीं? लेकिन अगर इमाम साहब को इतनी कम तनख़्वाह दी जिस से रोज़मर्रा की आम ज़रूरियाते ज़िन्दगी भी पूरी न हो सकें तो ये उनकी हक़ तलफी है जिसका हिसाब यक़ीनन अल्लाह के हां देना पड़ेगा। मस्जिद व मदरसे की आमदनी के सबसे ज़्यादा मुस्तहिक़ इमाम, मुअजि़्ज़न और असातज़ा हैं। ये जितने अच्छे और ख़ुशहाल रहेंगे मस्जिद और मदरसों का निज़ाम उतना ही अच्छा चलेगा। सिर्फ इमाम की तनख़्वाह देकर इमाम पर अज़ान की भी ज़िम्मेदारी डालना और झाड़ू वग़ैरह देने के काम पर मामूर करना ये उनकी तौहीन है।
हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि (हामिलीने क़ुरआन) क़ुरआन का इल्म रखने वाले की ताज़ीम करो, बेशक जिसने इनकी इज़्ज़त की उसने मेरी इज़्ज़त की। (अल जामिउल सग़ीर 1/14)
तनख़्वाह अच्छी देना भी उनकी इज़्ज़त करने में दाखि़ल है और हदीस़ में है कि हामिलीने क़ुरआन इस्लाम का झण्डा उठाने वाले और उसको बढ़ावा देने वाले हैं जिसने उनकी ताज़ीम की उसने अल्लाह की ताज़ीम की और जिसने उनकी तौहीन की उस पर अल्लाह की लानत है। (अल जामिउल सग़ीर 1/142)
तनख़्वाह कम होने और ज़रूरियाते ज़िन्दगी ज़्यादा होने की वजह से इमाम किसी मालदार साहिबे ख़ैर से सवाल करने की जुराअत कर बैठते हैं और कभी-कभी सवाल पूरा ना होने की सूरत में सख़्त ज़िल्लत उठानी पड़ती है। ऐसे हालात में तनख़्वाह न बढ़ाकर उन्हें परेशानी में डालना भी एक तरह की तौहीन ही है। लिहाज़ा इमाम की तनख़्वाहें उनके घर के ख़र्चे के मुताबिक़ तय करके महंगाई के साथ साथ बढ़ाते रहना चाहिए। साल पूरा होने का इंतिज़ार या तनख़्वाह बढ़ाने के मामले में तंग दिली से काम लेना या दीगर नामुनासिब शर्त व क़ैद लगाना सहीह नहीं। (फ़तावा रहीमिया)
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