Raising children from birth to adult
(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम)
अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!
दूसरा दौर – जन्म से लेकर व्यस्क होने तक
बच्चे की पैदाइश पर सबसे पहले उसके दाएं कान में अज़ान और बाएं कान में इक़ामत कहने की हिदायत की गयी है और फिर किसी नेक व दीन का ज्ञान रखने वाले से तहनीक (कोई मीठी चीज़ जैसे खजूर आदि चबाकर बच्चे के मुंह में डालने को तहनीक कहते हैं) और बरकत की दुआ कराना मसनून है। सातवें दिन बच्चे की ओर से अल्लाह के नाम पर जानवर ज़िब्ह करना (अक़ीक़ा करना) और अच्छा नाम रखना मसनून है।
मनो वैज्ञानिकों के निकट अच्छे नाम इन्सान के व्यक्तित्व और चरित्र पर बड़े गहरे प्रभाव डालते हैं। आप सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘अल्लाह के निकट सबसे अधिक पसन्दीदा नाम अब्दुल्लाह और अब्दुर्रहमान है।’’ (मुस्लिम)
ये सारे काम बच्चे को एक पाकीज़ा, भाग्यवान और भला जीवन प्रदान कराने में बड़ा अहम रोल अदा करते हैं।
नबी सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘जब बच्चा सात साल का हो जाए तो उसे नमाज़ पढ़ने का हुक्म दो। दस साल की उम्र में नमाज़ न पढ़े तो उसे मार कर नमाज़ पढ़ाओ और उनके सोने की जगह (अर्थात बिस्तर या कमरा) अलग अलग कर दो।’’ (बुख़ारी)
ज़रा सोचिए रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलइहि वसल्लम के इस छोटे से हुक्म में बच्चे के प्रशिक्षण के कितने अहम सूत्र मौजूद हैं। नमाज़ पढ़ने से पहले बच्चे को पेशाब पाख़ाना से फ़राग़त, ग़ुस्ल और वुज़ू की प्रारम्भिक बातें बतायी जाएंगी।
कपड़ों की पाकी और पाक जगह का महत्व बताया जाएगा। मस्जिद और मुसल्ला का परिचय करा दिया जाएगा। इमामत और संगठनात्मक वाला जीवन बसर करने की सूझ बूझ पैदा होगी।
उपरोक्त हदीस शरीफ के अन्तिम भाग में यह निर्देश दिया गया है कि दस साल की उम्र में बच्चों के बिस्तर (या हो सके तो कमरे) अलग अलग कर दो। हर आदमी जानता है कि नींद की हालत में इन्सान किस हाल में होता है। कमरे अलग करने में हिक्मत यह है कि बच्चों के अन्दर अल्लाह ने स्वाभाविक रूप से लाज की जो भावना रखी है वह न केवल क़ायम रहे बल्कि और अधिक बढ़ती जाए। आराम के समयों में नाबालिग़ बच्चों को भी अपने मां-बाप के पास इजाज़त लेकर आने का हुक्म देकर इस्लाम ने सतीत्व व लोक लाज का ऐसा ऊँचा पैमाना निर्धारित कर दिया है जिसकी दूसरे धर्म कल्पना तक नहीं कर सकते।
अल्लाह का इरशाद है- ‘‘ऐ लोगों जो ईमान लाए हो ज़रूरी है कि तुम्हारे ग़ुलाम और नाबालिग़ बच्चे तीन समयों में इजाज़त लेकर तुम्हारे पास आएं-
1. सुबह की नमाज़ से पहले
2. दोपहर को जब तुम (आराम के लिए) बपड़े उतार कर रख देते हो
3. इशा की नमाज़ के बाद (जब तुम सोने के लिए बिस्तर पर चले जाओ) (सूरह नूर: 59)
व्यस्क की उम्र से पहले ये सारे आदेश बच्चे के अन्दर जिन्सी भावना पैदा होने के अवसर कम से कम कर देते हैं और बच्चा स्वभाविक रूप से एक पाकीज़ा साफ़ सुथरे माहौल का आदी बन जाता है।
तीसरा दौर – व्यस्क आयु से निकाह तक
व्यस्क आयु की हदों में दाखि़ल होते ही मर्द औरत पर वे सारे क़ानून लागू हो जाते हैं जो इससे पहले नाबालिग़ होने की वजह से लागू नहीं थे। स्पष्ट रहे लड़कों के लिए बालिग़ होने की पहचार स्वप्नदोष का होना है और लड़कियों के लिए मासिकधर्म का आना है। व्यस्क आयु के बाद मर्द और औरत में जिन्सी भावनाएं जागने लगती हैं। लड़की के लिए प्राकृतिक तौर पर आकर्षण का एहसास होने लगता है। इस्लाम इन भावनाओं को धीरे धीरे विभिन्न आदेशों द्वारा बड़ी सूझ बूझ और बा कमाल तरीक़ से निकाह के होने तक जिन्सी बुराइयों व गन्दिगी से पाक साफ़ रखने की व्यवस्था करता है इस सिलसिले में दिग गए अहम आदेश इस प्रकार हैं-
- मेहरम और ग़ैर मेहरम रिश्तों का विभाजन
- सातिर लिबास पहनने का हुक्म
- घर में इजाज़त लेकर दाखि़ल होने का हुक्म
- पर्दे का आदेश
- ग़स्से बसर (नज़रें मिलाना)
- मर्द और औरत के घुलने मिलने की मनाही
- कुछ अन्य आवेश बढ़ाने वाले कामों की मनाही
- निकाह का हुक्म
- रोज़ा – निकाह का विकल्प
- अंतिम रास्ता
तुम्हारे हाथ धूल में अटें तुम्हें दीनदार औरत से निकाह करने से कामयाबी हासिल करना चाहिए।’’ (बुख़ारी)
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