Islamic Marriage Part 14 : क्या ससुराल की सेवा करना वाजिब नहीं


 Isn’t it fair to serve in-laws?

(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम)

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

क्या शरअी तौर पर ससुराल की सेवा करना वाजिब नहीं?

मतलब यह होता है कि अब उम्र भर के लिए तुम्हारा मरना जीना दुख सुख ख़ुशी और ग़मी उसी घर से जुड़ी है। इस नसीहत का नतीजा यह निकलता है कि बहु अपने पति के मां-बाप को अपने मां-बाप जैसा आदर सम्मान देती और उनकी सेवा में कोई कमी न होने देती और इस तरह सास बहु की पारम्परिक नोक झोंक के बावजूद लोग शान्ति और सुख का जीवन बसर करते थे जब से पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण का शौक़ पैदा हुआ है तब से एक नयी सोच ने जन्म लेना शुरू कर दिया है वह यह कि शरअी तौर पर औरत पर ससुराल की सेवा करना वाजिब नहीं और यह कि पति के लिए खाना पकाना कपड़े धोना और अन्य काम (घरेलू) करना भी पत्नी पर वाजिब नहीं, न ही पति इन बातों की मांग कर सकता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? आइए नक़ली और अक़ली दलीलों की रोशनी में जायज़ा लें कि यह ‘‘फ़तवा’’ इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार है या शरीअत के नाम पर पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण का शौक़।

जहां तक पति की सेवा का संबंध है इस बारे मे रसूले अकरम सल्ल0 के इरशादात इतने स्पष्ट हैं और इतनी अधिक संख्या में हैं कि इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। हम यहां केवल तीन हदीसें सार में नक़ल कर रहे हैं-

1. पति पत्नी की जन्नत और जहन्नम है। (तबरानी, हाकिम, अहमद)

2. यदि मैं किसी को सज्दा करने का हुक्म देता तो औरत को हुक्म देता कि वह अपने पति को सज्दा करे। (तिर्मिज़ी)

3. औरतों की जहन्नम में अधिकता इसलिए होगी कि वह अपने पतियों की नाशुक्री करती हैं। (बुख़ारी)

यह बात मालूम है कि पाक पत्नियां नबी सल्ल0 के लिए खाना पकातीं, आपके लिए बिस्तर बिछातीं, आपके कपड़े धोतीं यहां तक कि आपके सर मुबारक में कंघी करतीं। रसूले अकरम सल्ल0 के कथनों और पाक पत्नियों की सेवा के बाद आखि़र वह कौन सी शरीअत है जिससे यह साबित किया जाएगा कि पति के लिए खाना पकाना, कपड़े धोना और अन्य घरेलू काम करना पत्नी पर वाजिब नहीं।

जहां तक ससुराल (ससुर और सास) की सेवा करने की बात है इस बारे में कुछ कहने से पहले यह बात समझ लेनी चाहिए कि दीने इस्लाम सरासर भाइचारे, हमदर्दी, मुहब्बत, रहमत व स्नेह और सम्मान का दीन है। एक बूढ़ा व्यक्ति नबी सल्ल0 से मुलाक़ात की मन्शा से सेवा में हाज़िर हुआ। लोगों ने उस बूढ़े को रास्ता देने में कुछ देरी कर दी तो नबी सल्ल0 ने फ़रमाया- ‘‘जो व्यक्ति हमारे छोटों पर दया नहीं करता और हमारे बड़ों का हक़ नही पहचानता वह हम से नहीं।’’ (अबू दाऊद)

इमाम तिर्मिज़ी ने अपनी सुनन में एक हदीस रिवायत की है कि हज़रत कबशह बिन्त काअ़ब बिन मालिक रज़ि0 अपने ससुर हज़रत अबू क़तादा रज़ि0 के लिए वुज़ू का पानी लायीं ताकि उन्हें वुज़ू कराएं। हज़रत कबशह रज़ि0 ने वुज़ू कराना शुरू किया तो एक बिल्ली आयी और बर्तन से पानी पीने लगी। हज़रत अबू क़तादा रज़ि0 ने बर्तन बिल्ली के आगे कर दिया और कहा रसूलुल्लाह सल्ल0 ने फ़रमाया- ‘‘बिल्ली नापाक (गन्दी) नहीं है। (तिर्मिज़ी) इस हदीस से यह बात स्पष्ट होती है कि सहाबियात में ससुराल की सेवा की धारणा मौजूद थी।

ससुराल की सेवा का एक अत्यन्त नाज़ुक और कमज़ोर पहलू यह है कि रसूल अकरम सल्ल0 ने औलाद के लिए उसके मां-बाप को उसकी जन्नत या जहन्नम क़रार दिया है (इब्ने माज) जिसका मतलब यह है कि औलाद पर मां-बाप की सेवा करना, आज्ञा पालन करना और हर हाल में उन्हें राज़ी रखना वाजिब है। इसके साथ ही औरत के लिए उसके पति को उसकी जन्नत या जहन्न्म क़रार दे दिया मानो पूरे परिवार मां-बाप (ससुर और सास) बेटा (पति) पत्नी (बहू) को आपस में इस तरह एक दूसरे के साथ बांध दिया गया है कि उनके सांसारिक और पारलौकिक मामले एक दूसरे से अलग करना संभव ही नहीं। बेटा अपने मां-बाप की सेवा करने का पाबन्द है। पत्नी अपने पति की सेवा करने की पाबन्द है फिर यह कैसे संभव है कि बेटा तो दिन रात मां-बाप की सेवा में लगा रहे और पत्नी ‘‘शरअी तौर पर ससुराल की सेवा वाजिब नहीं’’ के फ़तवे की चादर ओढ़कर मज़े की नींद सोती रहे? यदि यह मान लिया जाए कि चूंकि शरीअते इस्लामिया में ससुर और सास के अलग अधिकारों का उल्लेख नहीं मिलता अतः बहु पर ससुर और सास की सेवा करना वाजिब नहीं तो आप अन्दाज़ा कर सकते हैं कि यह फ़लसफ़ा ख़ानदान को बर्बाद करने में कितना अहम रोल निभाएगा?

इसकी सबसे पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि पति अपने सास ससुर (अर्थात पत्नी के मां-बाप) की अवहेलना करेगा और आखि़रकार दोनों घरों में आपसी प्यार मुहब्बत, हमदर्दी, रहमत, आदर सम्मान के बदले अपमान, ग़ुस्ताख़ी, नाराज़ होना, अनादार और नफ़रत की भावना पैदा होगी। इससे न केवल बुज़ुर्गों का जीना हराम हो जाएगा बल्कि स्वयं पति पत्नी के बीच एक मुस्तक़िल झगड़े की सूरत पैदा हो जाएगी। यह फ़लसफ़ा पश्चिमी सामाजिक व्यवस्था में व्यवहार में लाने योग्य हो सकता है जहां औलाद को अपने मां-बाप से इतना ही बे ताल्लुक़ होता है जितनी बहू। लेकिन इस्लामी जीवन व्यवस्था में इस फ़लसफ़े के व्यवहार में लाने की कल्पना कैसी की जा सकती?
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