Islamic Marriage Part 13 : डोली और जनाज़ा, मां बाप, ससुर और सास के अधिकार


The rights of Doli and Janaza, parents, father-in-law and mother-in-law

(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम )

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

औरत मां के रूप में

एक सहाबी नबी सल्ल० की सेवा में हाज़िर हुए और कहा- “ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० मेरे सदव्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है आपने फ़रमाया- तेरी मां। उसने दोबारा पूछा- “फिर कौन आपने फ़रमाया- तेरी मां। उसने तीसरी बार पूछा- “फिर कौन आपने फ़रमाया- तेरी मां। उसने चौथी बार पूछा- फिर कौन आपने फ़रमाया- “तेरा बाप।” (बुख़ारी)

पारिवारिक व्यवस्था में औरत को मर्द पर तीन दर्जों की यह श्रेष्ठता इस्लाम की ओर से दिया गया वह सम्मानित और इज़्ज़त का मक़ाम है कि दुनिया भर की “महिला अधिकार संस्थाएं सदियों तक संघर्ष करती रहें तब भी उन्हें दुनिया का कोई देश, कोई धर्म और कोई क़ानून यह मक़ाम देने के लिए तैयार नहीं होगा। मुसलमान घराने में औरत निकाह के बन्धन में बन्ध कर अपने व्यवहारिक जीवन में क़दम रखती है तो उसे मर्द का शक्तिशाली सहारा मिल जाता है। उसके सन्तान होती है तो उसकी इज़्ज़त और मान सम्मान में कई गुना वृद्धि हो जाती है और जब पोते पोतियां हो जाती हैं तो वह सही अर्थों में एक राज्य की “शासक” बन जाती है।

एक ओर अपने पति की निगाहों में उसका महत्व बढ़ जाता है तो दूसरी ओर चालीस या पचास साला बेटा अपनी अम्मी जान के सामने बोलने का साहस नहीं कर पाता। घर के बड़े बड़े मामलों में फैसले मुसल्ले पर बैठी बड़ी अम्मी के इशारों से ते हो जाते हैं। नवासे पोते हर समय सेवकों की तरह दादी अम्मी और नानी अम्मी को खुश करने के लिए तैयार रहते हैं कहीं बड़ी अम्मी नाराज़ न हो जाएं। और बड़ी अम्मी भी अपने गुलशन के फूलों और कलियों को देख देखकर सदक़े और निछावर होती रहती हैं कि उनका जीवन निरुद्देश्य और बेकार नहीं था। प्रकृति की सौंपी गयी ज़िम्मेदारियों को उन्होंने पूरा किया और अपने सामने जीवन की यह गाड़ी देखकर बड़ी अम्मी के चेहरे पर सुख शान्ति का नूर बरसने लगता है काश महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली संस्थाओं को इस्लाम की ओर से औरत को प्रदान किए गए इस उच्च स्थान व दर्जे के बारे में भी सोचने का समय मिल जाए?*

*(क्षण भर के लिए पश्चिम की चमक दमक से भरपूर सामाजिक व्यवस्था में दिन रात बसर करने वाली की कल्पना कीजिए जो निकाह को मर्द की गुलामी मानती है। अविवाहित रहकर जवानी का आकर्षक समय महफ़िलों की शोभा बनती हैं आज यहां कल वहां। जब जवानी ढलने लगती है तो सुन्दरता भी फ़ीकी पड़ जाती है महफ़िलें सूनी सूनी दिखायी देती हैं, अचानक उसे महसूस होता है कि वह रौनक़ तो केवल एक सपना था दाएं बाएं आगे पीछे कोई हमदर्द है न साथी। जीवन के विस्तृत रेगिस्तान में पतझड़ों का शिकार हुए पेड़ों की भान्ति अकेली अकेली। तब बुढ़ापा गुज़ारने के लिए उसे किसी बिल्ली या कुत्ते का चयन करना पड़ता है।)

हम न तो यह मानने में कोई शर्म महसूस करते हैं कि इस्लाम ने औरत को मां के रूप में मर्द पर तीन गुना श्रेष्ठता प्रदान की है न ही यह लिखने में कोई झिझक है कि इस्लाम ने मर्दो को औरत पर आठ मामलों में उसके भौतिक गुणों के आधार पर श्रेष्ठता प्रदान की है जहां तक उन लोगों की बात है जिन्हें इस्लाम के हवाले से हर क़ीमत पर औरत को मर्द के समान साबित करने की बीमारी हो गयी है उनसे हम यह पूछना चाहते हैं कि आख़िर दुनिया के कौन से धर्म और कौन से कानून में औरत को व्यवहारिक रूप से मर्द के समान अधिकार हासिल हैं?

यदि ऐसा नहीं (और वास्तव में ऐसा नहीं) तो फिर हम उनसे निवेदन करेंगे कि दुनिया के अन्य धर्मों की भान्ति यदि इस्लाम ने भी औरत को मर्द के समान दर्जा नहीं दिया तो इसमें शर्म या मुंह छुपाने की आख़िर बात ही क्या है। मर्द और औरत के अधिकारों के बारे में इस्लाम का विभाजन अन्य समस्त धर्मों के मुक़ाबले में वही अधिक न्याय और सन्तुलन पर आधारित है। इस्लाम ने आज से चौदर सौ साल पहले औरत को जो अधिकार प्रदान किए हैं अन्य धर्म और क़ानून हज़ार कोशिशों के बावजूद वे अधिकार आज भी औरत को देने के लिए तैयार नहीं?

ससुर और सास के अधिकार

हमारे देश की नव्वे प्रतिशत आबादी या इससे भी अधिक उन घरानों पर आधारित है जो शादी के तुरन्त बाद अपने बेटे और बहु को अलग घर बनाकर देने की हैसियत नहीं रखते। कुछ न कुछ समय और कुछ हालतों में लम्बी अवधि तक बहु बेटे को अपनी ससुराल (या मां-बाप) के यहां रहकर गुज़ारा करना पड़ता है। ऐसे उदाहरण भी हमारे समाज में मौजूद हैं कि बेटे की शादी केवल इस उद्देश्य के लिए की जाती है कि घर में बूढ़े मां-बाप की सेवा करने वाला दूसरा कोई नहीं है। बहु की सूरत में घर को एक सहारा मिल जाएगा। यही कारण है कि कुछ साल पहले तक पुराने तौर तरीक़े वाले बुजुर्ग लोग अपने बच्चों के रिश्ते तै करते समय नातेदारी व रिश्तेदारी को बड़ा महत्व देते थे। आम तौर पर ख़ाला, फूफी, चचा, मामूं आदि अपनी सन्तानों को आपस की शादी की लड़ी में पिरोने की कोशिश करते, मां-बाप अपनी बेटी को विदा करते समय नसीहत करते बेटी! जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है उसी घर से तुम्हारा जनाज़ा उठना चाहिए।
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