Islamic Marriage Part 12 : औरतों को मर्दों के असमान अधिकार - 02


 Unequal rights for women to men

(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम )

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

3. विरासत

शरीअत ने औरत को हर हाल में सुरक्षा उपलब्ध की है। यदि वह पत्नी है तो उसका सारा ख़र्च पति के ज़िम्मे है, माँ है तो बेटे के ज़िम्मे है, बहन है तो भाई के ज़िम्मे है, बेटी है तो बाप के ज़िम्मे है। पत्नी होते हुए वह न केवल मेहर की हक़दार है बल्कि यदि कोई औरत जागीर की मालिक है और पति फाक़ा कर रहा हो तब भी शरअी रूप से पत्नी घर पर एक पैसा तक ख़र्च करने की पाबन्द नहीं। मर्द की इन ज़िम्मेदारियों और औरत के इन अधिकारों को सामने रखते हुए इस्लाम ने औरत को विरासत में मर्द के मुक़ाबले आधा हिस्सा दिया है। अल्लाह का इरशाद है- ‘‘मर्द का हिस्सा दो औरतों के हिस्से के बराबर है।’’ (सूरह निसा-11)

4. स्मण शक्ति और नमाज़ों की कमी

एक बार नबी अकरम सल्ल० ने औरतों को सम्बोधित करते हुए फरमाया- “औरतों! सदक़ा करो और इस्तग़फ़ार किया करो। मैंने जहन्नम में मर्दो की तुलना में औरतों को अधिक देखा है। एक औरत ने कहा- “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल0)! इसका कारण क्या है आप (सल्ल0) ने फरमाया- “तुम फटकार अधिक करती हो और पतियों की नाशुक्री करती हो। कम अक़्ल और दीन की कमी रखने के बावजूद मर्दों की मत मार देती हो। इस औरत ने फिर कहा ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल0)! औरत के कम अक़्ल और उसके दीन में कमी किस तरह से है आपने इरशाद फरमाया- “उसकी अक़्ल (स्मण शक्ति) में कमी का सबूत तो यही है कि दो औरतों की गवाही एक मर्द की गवाही के बराबर है और दीन में कमी (का सबूत) यह है कि (हर माह) तुम कुछ दिन नमाज़ नहीं पढ़ सकतीं और रमज़ान में (कुछ दिन) रोज़े भी नहीं रख सकतीं। (सही मुस्लिम)

हदीस शरीफ में औरतों की अक़्ल (अर्थात स्मण शक्ति) और दीन में कमी की जो दलील दी गयी है उससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। यह बात भी याद रखनी चाहिए कि अल्लाह ने क़ुरआन में जगह जगह इन्सान की प्राकृतिक कमज़ोरियों का ज़िक्र किया है जैसे “इन्सान बड़ा ही ज़ालिम और नाशुक्रा है (सूरह इबराहीम-34) “इन्सान बड़ा जल्दबाज है। (सूरह बनी इसराइल-11) “इन्सान थुईला पैदा किया गया है। (सूरह मआरिज-19) बेशक इन्सान बड़ा ज़ालिम और जाहिल है। (सूरह अहजाब-72)

इन आयतों में इन्सान का अपमान या तुच्छ मानना तात्पर्य नहीं है बल्कि उसकी प्राकृतिक कमज़ोरियों का बयान अपेक्षित है। इसी तरह औरत के भूलने का उल्लेख अल्लाह ने औरत के अपमान या तिरस्कार के लिए नहीं किया बल्कि उसकी प्राकृतिक कमज़ोरियों को बतलाने के लिए किया है। उपरोक्त हदीस से किसी को यह ग़लत फहमी नहीं होनी चाहिए कि औरत को सम्पूर्ण रूप से पूरी तरह नाक़िस व अक़्ल व दीन में अल्प कहा गया है जैसा कि स्वयं रसूलुल्लाह सल्ल० ने इसे स्पष्ट कर दिया है कि अक़्ल में कम केवल स्मण शक्ति के मामले में है और दीन में कम केवल नमाज़ों के मामले में है वरना कितनी ही औरतें ऐसी हैं जो शरीअत के आदेशों को समझने में मर्दों से अधिक बुद्धिमान और चालाक होती हैं और कितनी ही औरतें ऐसी हैं जिनका दीन, ईमान, नेकी और तक़वा हज़ारों मर्दों के दीन, ईमान, नेकी और तक़वा पर भारी है। नबी सल्ल० के काल में पाक पत्नियाँ और सहाबियात के उदाहरण इसका सबसे बड़ा सबूत है।

5. अक़ीक़ा

अक़ीक़े के मामले में भी इस्लाम ने मर्द और औरत में फ़र्क़ रखा है। अधिक संभावना यही है कि यह फ़र्क़ भी मर्द और औरत की महत्वकांक्षा को देखते हुए रखा गया है। जैसा कि इससे पहले हम दैत के तहत विस्तार से बहस कर चुके हैं। अल्लाह के नबी सल्ल0 का इरर्शाद है- “लड़के की ओर से (अक़ीक़ा में) दो बकरियां ज़िबह की जाएं और लड़की की ओर से एक बकरी। (तिर्मिजी)

6. निकाह में वली का अधिकार

औरत को शरीअत ने न तो स्वयं निकाह करने की इजाज़त दी है न ही औरत को किसी दूसरी औरत के निकाह में वली बनने की इजाज़त दी है। नबी सल्ल० का इरशाद है- “कोई औरत किसी दूसरी औरत का निकाह करे न ही कोई औरत अपना निकाह स्वयं करे। जो औरत अपना निकाह स्वयं करेगी वह ज़ानिया है। (इब्ने माजा)

7. तलाक का हक़

इस्लाम ने तलाक़ देने का हक़ मर्दों को दिया है औरतों को नहीं (देखें सूरह अहजाब-49) शरीअत के हर हुक्म में कितनी हिक्मत (युक्ति) है इसका पता पश्चिमी सामाजिक व्यवस्था से लगाया जा सकता है जहां मर्दों के साथ औरतों को भी तलाक़ का हक़ हासिल है वहां तलाक़ें इतनी अधिकता से दी जाती हैं कि लोगों ने सिरे से निकाह ही को छोड़ दिया है जिसका नतीजा यह है कि ख़ानदानी व्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। ख़ानदानी व्यवस्था को सुरक्षा देने के लिए ज़रूरी था कि तलाक़ का हक़ दोनों पक्षों में से किसी एक को ही दिया जाता चाहे मर्द को या औरत को। मर्द को उसकी ज़िम्मेदारियों और भौतिक गुणों के आधार पर इस बात का हक़दार समझा गया है कि तलाक़ का हक़ केवल उसी को दिया जाए। अलबत्ता ज़रूरत पड़ने पर औरत को शरीअत ने “ख़ुलअ” का हक़ दिया है।

8. नुबूवत, जिहाद, इमामते कुबरा व इमामते सुगरा

नुबूवत का काम, तलवार द्वारा जिहाद और मुल्की सरबराही व मार्ग दर्शन (इमामते कुबरा) तीनों काम बड़े मुश्किल, मुसीबत और आज़माइश वाले हैं जिसके लिए बड़ी ताक़त, साहस, दृढ़ता और फौलादी आसाब (फौलादी स्नायु) की ज़रूरत है। अतएव शरीअत ने ये तीनों काम केवल मर्दों के ज़िम्मे लगाए हैं औरतों को इनसे मुक्ति दे दी है यहां तक कि नमाज़ में मर्दों की इमामत (छोटी इमामत) से भी औरतों को अलग रखा गया है।

उपरोक्त कामों में इस्लाम ने मर्द को औरत पर श्रेष्ठता (नेकी और तक़वा) की दृष्टि से नहीं बल्कि उसकी प्राकृतिक क्षमताओं और भौतिक गुणों की दृष्टि से प्रदान की है। ज़रूरी मालूम होता है कि इस्लाम ने मर्द के मुक़ाबले में औरत को जिस मामले में श्रेष्ठता प्रदान की है उसका उल्लेख हम अपनी अगली पोस्ट में करेंगे। इंशाअल्लाह!
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