Islamic Marriage Part 11 : औरतों को मर्दों के असमान अधिकार – 01 : Unequal rights for women to men


(बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम )

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

1. परिवार का मुखिया होना

इस्लाम मर्द और औरत दोनों की शारीरिक बनावट और प्राकृतिक क्षमताओं को सामने रखते हुए दोनों के कार्य क्षेत्र का निर्धारण करता है। इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि मर्द और औरत अपनी अपनी शारीरिक बनावट और भौतिक गुणों के आधार पर अलग अलग उद्देश्यों के लिए पैदा किए गए हैं। शारीरिक बनावट की दृष्टि से प्रौढ़ अवस्था के बाद मर्दों के अन्दर कोई शारीरिक परिवर्तन नहीं होता सिवाए इसके कि चेहरे पर दाढ़ी और मूंछ के बाल उगने लग जाते हैं और उनके अन्दर जिन्सी भावनाएं जाग जाती हैं जबकि औरत के अन्दर प्रौढ़ अवस्था के बाद जिन्सी जागरूकता के अलावा बड़े प्रमुख परिवर्तन हो जाते हैं वे यह कि औरत को हर महीने मासिकधर्म का ख़ून आने लगता है जिससे उसकी शारीरिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन भी पैदा हो जाते हैं। औरत का श्वांस, पाचन, पट्ठों की व्यवस्था, ख़ून की गर्दिश, मानसिक व शारीरिक क्षमताएं मानो पूरा शरीर उससे प्रभावित होता है।

व्यस्क मर्द व औरतें अच्छी तरह जानते हैं कि औरत को प्रकृति हर महीने इस कष्टदायक स्थिति से केवल इसलिए दोचार करती है कि उसे मानव जाति के वुजूद जैसे महान उद्देश्य के लिए तैयार किया जाता है। औरत का व्यस्क होने के बाद हर महीने हफ़्ता दस दिन इस कष्टदायक स्थिति से दोचार रहना, फिर गर्भ के दिनों में सख़्तियां सहन करना, बच्चा होने के बाद अनेक शारीरिक बीमारियों के कारण मुर्दा जैसी हालत से दोचार होना, इसके बाद कमज़ोरी की हालत में दो साल तक अपने शरीर का ख़ून निचोड़ कर बच्चे को दूध पिलाने का बोझ बठाना और फिर एक लम्बे समय तक रातों की नींद हराम करके बच्चे की पैदाइश, देखभाल और प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारियां पूरी करनाद्व क्या ये सारे मेहनत व परिश्रम वाले काम औरत को वास्तव में इस बात की इजाज़त देते हैं कि वह घर की चाद दीवारी से बाहर निकले और उस मर्द के कांधे से कांधा मिलाकर जीवन की दौड़ में हिस्सा ले जिसे मानव जाति की प्रगति व वुजूद में सिवाए बीज डाल देने और भरण पोषण दे देने के कोई ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी है। (मानव जाति के वुजूद में औरत की इस महान सेवा को देखते हुए इस्लाम ने औरत को जिहाद जैसी महान इबादत से मुक्त करके हज को औरत के लिए जिहाद का दर्जा प्रदान किया है)।

भौतिक गुणों की दृष्टि से मर्द को अल्लाह ने शासन, अधिकार, नेतृत्व, श्रेष्ठता, मेहनत, प्रतिरोध, जंग, व लड़ाई और ख़तरों का सामना करने जैसी विशेषताओं से नवाज़ा है जबकि औरत को अल्लाह ने त्याग, बलिदान, निष्ठा, अताह सहनशक्ति, लचक नर्मी, सुन्दरता, और दिल लुभाने के गुणों से सुशोभित किया है।

मर्द और औरत की शारीरिक बनावट और दोनों को अलग अलग प्रदान किए गए गुण क्या इस बात का स्पष्ट सुबूत नहीं है कि औरत का कार्यक्षेत्र घर के अन्दर, मानव जाति के अस्तित्व, बच्चों के प्रशिक्षण, घरदारी और घर के अन्य कामों की देखभाल पर आधारित है जबकि मर्द का कार्यक्षेत्र अपने बीवी बच्चों के लिए रोज़ी कमाना, अपने परिवार को समाज की बुराइयों से बचाना, राष्ट्रीय मामलों में भाग लेना और ऐसे ही अन्य कामों पर आधारित है। मर्द और औरत का प्राकृतिक कार्यक्षेत्र निर्धारित करने के बाद इस्लाम दोनों के अधिकारों को निश्चित भी करता है अतएव घर की व्यवस्था में मर्द को अल्लाह ने मुखिया का दर्जा प्रदान किया है। अल्लाह का इरशाद है-

‘‘मर्द औरतों पर मुखिया है इसलिए कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर वरीयता दी है और इसलिए कि मर्द अपने माल ख़र्च करते हैं।’’ (सूरह निसा – 34)

जिसका मतलब यह है कि मर्द को अल्लाह ने उसके भौतिक गुणों के आधार पर घर का रक्षक और चैकीदार बनाया है जबकि औरत को उसके भौतिक गुणों के आधार पर मर्द की सुरक्षा नियुक्त करने के बाद उसे यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी कि वह अपने घर वालों का आर्थिक बोझ सहन करे, उनकी सारी ज़रूरतों को पूरा करे, उनके साथ सदव्यवहार करे। जबकि औरत पर यह ज़िम्मेदारी डाली गयी कि वह मर्द की सेवा में कोई कसर न उठा रखे, उसके माल और सम्मान (इज़्ज़त) की रक्षा करे और हर जायज़ काम में उसकी मदद करे व उसका पालन करे।

2. ग़ल्ती से हत्या करने में आधा दैत (हत्या के बदले जुर्माना)

जीवन चक्र में इस्लाम मर्द की ज़िम्मेदारियों को औरत की ज़िम्मेदारियों की तुलना में ज़्यादा अहम समझता है। परिवार का आर्थिक बोझ सहना, पत्नी व बच्चों को सामाजिक बुराइयों से बचाना, समाज में बुराई के ख़ात्मे और भलाई के फैलाने का काम करना, इस उद्देश्य के लिए आज़माइशें और तकलीफ़ें सहन करना कि जान की बाज़ी तक लगा देना, देश व क़ौम की दुश्मनों से रक्षा करना आदि ये सारे काम शरीअत ने मर्दों को ही सौंपे हैं।

ज़िम्मेदारियों के इसी अन्तर को सामने रखते हुए शरीअत ने मर्द और औरत के पैमाने में भी अन्तर रखा है अतः ग़लती से की जाने वाली हत्या में औरत की दैत (हत्या का जुर्माना) मर्द की दैत से आधी रखी है। स्पष्ट रहे कि जान बूझ कर हत्या करने में मर्द व औरत की दैत बराबर है लेकिन दैत के आधा होने का मतलब यह नहीं कि मानव जाति की हैसियत से दोनों में कोई फ़र्क़ है।

मानव जाति की हैसियत से इस्लाम ने दोनों में कोई अन्तर नहीं रखा (इसके बारे में हम बता चुके हैं) दैत के अन्तर को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि दो फ़ौजों के बीच होने वाली जंग के अन्त में दोनों पक्ष जब क़ैदियों का तबादला करते हैं तो सिपाही के बदले सिपाही का तबादला होता है लेकिन जरनल के बदले में सिपाही का तबादला कभी नहीं होता यद्यपि इन्सान होने के नाते दोनों बराबर हैं लेकिन जंग के मैदान में दोनों का पैमाना एक जैसा नहीं अतः एक जरनल का तबादला कभी कभी कई सौ या कई हज़ार सिपाहियों के साथ होता है। यही अन्तर शरीअत ने मर्द और औरत के कार्यक्षेत्र को सामने रखते हुए रखा है जो पूरी तरह न्याय के तक़ाज़ों को पूरा करता है।
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