Islamic Marriage Part 10 : इस्लाम में औरतों को मर्दों के समान अधिकार

In Islam, women have the same rights as men.

( बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम )

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

3. भलाई का सवाब

भले कर्माें के सवाब में मर्द व औरत पूरी तरह समान हैं। अल्लाह का इरशाद है- ‘‘जो नेक काम करेगा चाहे मर्द हो या औरत बशर्ते कि वह मोमिन हो ऐसे सब लोग जन्नत में दाखि़ल होंगे जहाँ उन्हें बे हिसाब रिज़्क़ दिया जाएगा।’’ (सूरह ग़ाफ़िर – 40)

एक दूसरी आयत मे इरशाद है- ‘‘मर्दों और औरतों में से जो लोग सदक़ा देने वाले हैं और जिन्होंने अल्लाह को कर्ज़े हसना दिया है उन सबको निश्चय ही कई गुना बढ़ाकर दिया जाएगा और उनके लिए बेहतरीन बदला है।’’ (सूरह हदीद – 18)

सूरह आले इमरान में अल्लाह का इरशाद है- ‘‘मैं तुममें किसी का अमल बर्बाद नहीं करता चाहे मर्द हो या औरत तुम सब एक दूसरे के जिन्स से हो।’’ (आले इमरान – 195)

इस्लाम में कोई अमल ऐसा नहीं जिसका सवाब मर्दों को केवल इसलिए ज़्यादा दिया गया हो कि वे मर्द हैं और औरतों को इसलिए कम दिया गया है कि वे औरतें हैं बल्कि इस्लाम ने फ़ज़ीलत का पैमाना तक़वा को बनाया है। यदि कोई औरत मर्द के मुक़ाबले में अल्लाह से अधिक डरती है तो निश्चय ही औरत ही अल्लाह के निकट श्रेष्ठ होगी क्योंकि अल्लाह का इरशाद है-

‘‘अल्लाह के निकट तुम सब (मर्दों और औरतों) में अधिक इज़्ज़त वाला वह है जो सबसे अधिक अल्लाह से डरता है।’’ (सूरह हुजरात – 13)

4. ज्ञान की प्राप्ति

इस्लाम ने ज्ञान की प्राप्ति के मामले में भी औरत को मर्द के समान दर्जा दिया है। नबी सल्ल0 ने सहाबियात की शिक्षा के लिए हफ़्ते में एक दिन मुक़र्रर कर रखा था जिसमें आप औरतों को नसीहतें करते और शरीअत के अहकाम बतलाते (बुख़ारी किताबुल इल्म) हज़रत आइशा रज़िअल्लाहु अन्हा और हज़रत उम्मे सलमा रज़िअल्लाहु अन्हा ने दीन का ज्ञान सीखने और उम्मत तक पहुँचाने में मिसाली रोल निभाया। हज़रत आइशा रज़ि0 दीन का ज्ञान हासिल करने वाली औरतों का साहस बढ़ाया करतीं। एक अवसर पर आप फ़रमाती हैं- ‘‘अन्सारी औरतें कितनी अच्छी हैं कि दीनी मसाइल मालूम करने में झिझकती नहीं हैं।’’ (मुस्लिम)

क़ुरआन मजीद की बहुत सी आयतें और नबी करीम सल्ल0 की हदीसें ऐसी हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि इस्लाम औरतों को मर्दों की तरह न केवल दीन का ज्ञान हासिल करने की इजाज़त देता है बल्कि उसे ज़रूरी ठहराता है। क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है-

‘‘ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो! अपने आपको और अपने घर वालों को जहन्नम की आग से बचाओ।’’ (सूरह तहरीम – 09)

स्पष्ट है जहन्नम की आग से बचने और औलाद को बचाने के लिए ज़रूरी है कि स्वयं भी वह शिक्षा हासिल की जाए और औलाद को भी उस शिक्षा से सुसज्जित किया जाए जो जहन्नम से बचने का साधन बन सकती है। नबी करीम सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘हर मुसलमान पर इल्म हासिल करना अनिवार्य है।’’ (तबरानी) उलमा के निकट इस हदीस शरीफ़ में मुसलमान से तात्पर्य मर्द ही नहीं बल्कि मुसलमान मर्द और औरतें दोनों हैं। उपरोक्त आदेशों से यह बात स्पष्ट है कि इस्लाम में औरत को भी ज्ञान प्राप्त करने का उतना ही हक़ हासिल है जितना मर्द को। जहाँ तक सांसारिक शिक्षा का संबंध है शरअी सीमाओं के अन्दर रहते हुए ऐसा ज्ञान जो औरतों को उनके धर्म और अक़ीदे का बाग़ी न बनाए और व्यवहारिक जीवन में औरतों के लिए लाभकारी भी हो, सीखने में इन्शाअल्लाह कोई हरज नहीं।

5. सम्पत्ति का अधिकार

जिस प्रकार मर्दों के सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षा हासिल है उसी तरह इस्लाम ने औरतों की सम्पत्ति के अधिकारों को भी सुरक्षा प्रदान की है। यदि औरत किसी जायदाद की मालिक है तो किसी दूसरे को इसमें से कुछ लेने का कोई हक़ नहीं जैसे मेहर औरत की सम्पत्ति है जिसमें उसके भाई बाप यहाँ तक कि बेटे या पति को कुछ भी लेने का हक़ नहीं है। इस्लाम ने जिस प्रकार मर्दों के लिए विरासत के हिस्से मुक़र्रर किए हैं वैसे ही औरतों के लिए भी मुक़र्रर किए हैं। इस्लाम ने औरत की सम्पत्ति के अधिकार को इतनी सुरक्षा दी है कि औरत चाहे कितनी ही मालदार क्यों न हो पति कितना ही ग़रीब क्यों न हो, पत्नी का भरण पोषण बहरहाल मर्द ही के ज़िम्मे है। औरत अपनी सम्पत्ति में से यदि एक पैसा भी घर पर ख़र्च न करे तो शरीअत की ओर से उस पर कोई गुनाह नहीं। यहाँ यह मसला स्पष्ट करना भी ज़रूरी मालूम होता है कि औरत से स्वयं कह कर मेहर माफ़ कराना जायज़ नहीं। यदि कोई औरत अपनी स्वयं मर्ज़ी से हंसी ख़ुशी माफ़ कर दे तो जायज़ है वरना निश्चित मेहर अदा करना उसी तरह वाजिब है जिस प्रकार किसी का क़र्ज़ अदा करना वाजिब होता है। जो लोग केवल नीयत से लाखों का मेहर मुक़र्रर कर लेते हैं कि औरत से माफ़ करा लेंगे वे निश्चय ही गुनाहगार होते हैं।

6. पति का चयन

जिस तरह मर्द को इस्लाम ने इस बात का हक़ दिया है कि वह अपनी स्वयं की मर्ज़ी से जिस भी मुसलमान औरत से निकाह करना चाहे कर सकता है इसी तरह औरत को भी इस्लाम इस बात का पूरा पूरा हक़ देता है कि वह अपनी मर्ज़ी से पति का चयन कर ले लेकिन कम उम्री और ना तजुर्बेकारी के तक़ाज़ों को समक्ष रखते हुए शरीअत ने निकाह में संरक्षक को भी आवश्यक ठहराया है जिसका विवरण पिछले भाग में आप लोग पढ़ चुके हैं।

7. ख़ुलअ़ का अधिकार

जिस प्रकार शरीअत ने मर्द को ना पसन्दीदा औरत से अलहदगी के लिए तलाक़ का अधिकार दिया है उसी तरह औरत को ना पासन्दीदा मर्द से अलग होने के लिए ख़ुलअ़ का अधिकार दिया है जिसे औरत आपसी बातचीत या न्यायालय के द्वारा हालिस कर सकती है। एक औरत नबी अकरम सल्ल0 की सेवा में हाज़िर हुई और अपने पति की शिकायत की। आपने उससे पूछा- ‘‘क्या तुम मेहर में दिया गया बाग़ वापस कर सकती हो? औरत ने कहा- ‘‘हाँ ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल0!’’ आपने उसके पति को हुक्म दिया कि उससे अपना मेहर वापस ले लो और उसे अलग कर दो।’’(बुख़ारी)

उपरोक्त बातों से हमें मालूम पड़ता है कि इस्लाम ने औरतों को मर्दों के समान अधिकार प्रदान किए हैं जिन कामों में औरतों को मर्दों के असमान (अर्थात कम) अधिकार दिए हैं वे आप अगली पोस्ट में इन्शाअल्लाह ज़रूर पढ़ेंगे।
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