Islamic Marriage Part 09 : औरत की आज़ादी के असल प्रेरक


औरत की आज़ादी के असल प्रेरक, मर्द और औरत में समानता
The real motivator of women’s freedom, 
Equality between man and woman

  बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

पश्चिम में औरत की आज़ादी के असल प्रेरक क्या हैं?

पश्चिम में औरत मर्द के बीच समानता का मतलब यह है कि औरत हर जगह मर्द के कांधा से कांधा मिलाकर खड़ी नज़र आ जाए। दफ़्तर हो या दुकान, फ़ैक्ट्री हो या कारख़ाना, होटल हो या क्लब, पार्क हो या मनोरंजन स्थल, नाचघर हो या प्ले ग्राउंड औरत मर्द की समानता की आज़ादी या औरतों के अधिकारों का यह फ़लसफ़ा बघारने की असल ज़रूरत औरत को नहीं बल्कि मर्द को पड़ी है जिसके सामने दो ही उद्देश्य थे एक औद्योगिक क्रान्ति के लिए फ़ैक्ट्रियों और कारख़ानों की पैदावार में वृद्धि, दूसरे जिन्सी लज़्ज़त की प्राप्ती। दूसरे शब्दों में पश्चिम में औरत की आज़ादी के आन्दोलन का असल प्रेरक दो ही चीज़ें हैं ‘‘पेट और शर्मगाह’’।

तथ्य तो यह है कि पश्चिम के लोगों का सारा जीवन इन्हीं दो चीज़ों के चारों ओर धूम रहा है*

* क़ुरआन में अल्लाह ने हर समय पेट और हर समय शर्मगाह का फ़लसफ़ा रखने वाले मनुष्य की कुत्ते से उपमा दी है जिसकी आदत में दो ही चीज़ें रखी गयी हैं या तो वह हर जगह उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते पीने की चीज़ों को सूंधता फिरता है इससे समय मिले तो फिर शर्मगााह को चाटने और सूंधने में मगन रहता है इसके अलावा उसे दुनिया का तीसरा काम नहीं। (देखें सूरह आराफ 176)।

जीवन के इस फ़लसफ़े ने मानव जाति को क्या दिया इस पर हम इससे पहले विस्तार से बहस कर चुके हैं यहां हम ‘‘औरत मर्द की समानता’’ के बारे में इस्लामी दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहते हैं। इस्लाम ने मर्द और औरत की मानसिक और शारीरिक बनावट और भौतिक गुणों को समक्ष रखते हुए दोनों के अलग-अलग अधिकार निर्धारित किए हैं। कुछ मामलों में दोनों को समान दर्जा दिया गया है कुछ में कम और कुछ में ज़्यादा। जिन कामों में समान दर्जा दिया गया है वे इस प्रकार हैं-

1. इज़्ज़त व आबरू की सुरक्षा
2. जान की सुरक्षा
3. भलाई का सवाब
4. ज्ञान की प्राप्ति
5. सम्पत्ति का अधिकार
6. पति का चयन
7. ख़ुलअ़ का अधिकार

इंशा अल्लाह! उपरोक्त उनवान के बारे में आप लोगों को जानकारी दी जा रही हैं चुनोंचे हमारे प्रिय पाठकों से गुज़ारिश है कि निकाह के अगले और पीछले सभी लेखों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें क्योंकि ये बहुत ही अहम मसअला है।

1. इज़्ज़त व आबरू की सुरक्षा

इस्लाम में इज़्ज़त व आबरू की सुरक्षा के लिए जो आदेश मर्दों के लिए हैं वही आदेश औरतों के लिए भी हैं। क़ुरआन में जहाँ मर्दों को यह हुक्म दिया है कि वे एक दूसरे का उपहास न उड़ाएं वहीं औरतों को भी यह हुक्म है कि वे एक दूसरी का उपहास न उड़ाए। मर्दों और औरतों को समान हुक्म दिया गया है। ‘‘एक दूसरे व्यंग पर व्यंग न करो, एक दूसरे को बुरे नामों से याद न करो, एक दूसरी की ग़ीबत न करो।’’ (सूरह हुजरात)

नबी सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘हर मुसलमान (मर्द या औरत) का ख़ून, माल और इज़्ज़त एक दूसरे पर हराम है।’’ (मुस्लिम)

इज़्ज़त और आबरू के हवाले से औरत का मामला मर्द की तुलना में अधिक नाज़ुक है इसलिए इस्लाम ने औरत की इज़्ज़त और आबरू की सुरक्षा के लिए अगल से कड़े आदेश उतारे हैं। अल्लाह का इरशाद है- ‘‘जो लोग पाक दामन, बे ख़बर मोमिन औरतों पर आरोप लगाते हैं उन पर दुनिया व आखि़रत में लानत (फटकार) की गयी है और उनके लिए बहुत बड़ा अज़ाब है।’’ (सूरह नूर 23)

दूसरी आयत में पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाने की सज़ा अस्सी कोड़े निर्धारिक की गयी है (सूरह नूर 4) जबकि औरत की इज़्ज़त लूटने की सज़ा सौ कोड़े हैं (सूरह नूर 2) यदि मर्द विवाहित है तो इसकी सज़ा संगसार (पत्थर मारना) है। (अबू दाऊद)

नबी सल्ल0 के जीवन काल में एक औरत अंधेरे में नमाज़ के लिए निकली। रास्ते में एक व्यक्ति ने उसे गिरा लिया और उसके साथ बलात्कार किया। औरत के शोर मचाने पर लोग आ गए। और बलात्कारी पकड़ा गया। नबी सल्ल0 ने उसे संगसार करा दिया और औरत को छोड़ दिया। (तिर्मिज़ी)

औरत की इज़्ज़त और आबरू के मामले में उल्लेखनीय और अहम बात यह है कि इस्लामी शरीअत ने इसका कोई भौतिकी या वित्तीय बदला क़ुबूल करने की इजाज़त नहीं दी और न ही इसे क़राननामे के तौर पर गुनाह का दर्जा दिया है। नबी सल्ल0 के ज़माने में एक लड़का किसी व्यक्ति के घर काम करता था लड़के ने उस व्यक्ति की पत्नी से ज़िना किया तो लड़के के बाप ने पत्नी के पति को सौ बकरियां और एक लौंडी देकर राज़ी कर लिया। मुक़दमा नबी सल्ल0 की अदालत में गया तो आपने इरशाद फ़रमाया कि बकरियाँ और लौंडी वापस लो और ज़ानी व ज़ानिया को सज़ा दी। (बुख़ारी व मुस्लिम)

औरत की इज़्ज़त और आबरू की यह धारणा न इस्लाम से पहले कभी रही है न इस्लाम आने के बाद किसी दूसरे धर्म या समाज ने प्रस्तुत की है। कहना चाहिए कि औरत की इज़्ज़त और आबरू के मामले में इस्लाम ने प्रमुख आदेश देकर मर्द के मामले में औरत को कहीं अधिक महत्वपूर्ण और उच्च स्थान प्रदान किया है।

2. जान की सुरक्षा

इन्सानी जान के तौर पर मर्द और औरत दोनों की जाना की सुरक्षा समान है। अल्लाह का इरशाद है-

‘‘जो व्यक्ति किसी मोमिन (मर्द हो या औरत) को जान बूझ कर क़त्ल करे उसकी सज़ा जहन्नम है।’’ (बुख़ारी)

अन्तिम हज के अवसर पर दिए गए ख़ुत्बे में नबी सल्ल0 ने इरशाद फ़रमाया-

‘‘अल्लाह ने तुम सब (मर्दों और औरतों) के ख़ून और माल एक दूसरे पर ह़राम कर दिए हैं।’’ (मुसनद अहमद)

नबी सल्ल0 के ज़माने में एक यहूदी ने एक लड़की को क़त्ल कर दिया। नबी सल्ल0 ने लड़की के बदले में यहूदी को क़त्ल करा दिया।’’ (बुख़ारी)

स्पष्ट रहे जानते बूझते किए जाने वाले क़त्ल में इस्लाम ने मर्द और औरत की दैत में कोई फ़र्क़ नहीं रखा। ज़िम्मियों के अधिकारों का उल्लेख करते हुए आपने फ़रमाया- ‘‘जिसने किसी ज़िम्मी (मर्द हो या औरत) को क़त्ल किया अल्लाह ने उस पर जन्नत ह़राम कर दी है।’’ (नसाई)

अज्ञानता के दौर में औरत की जान का चूंकि कोई महत्व न था बल्कि उसकी पैदाइश को अशुभ की अलामत माना जाता था इसलिए अल्लाह ने औरत की जान की सुरक्षा के लिए बड़े कठोर स्वर में आयतें नाज़िल कीं-

‘‘और जब ज़िन्दा गाड़ी गयी लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस अपराध मे क़त्ल की गयी।’’ (सूरह तकवीर 8, 9)

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