Islamic Marriage Part 08 : क्या संरक्षक के बिना निकाह जायज़ है?



बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस्सलातु वस्सलामु अला सय्यिदिल मुर्सलीन वल आक़िबतु लिल मुत्तक़ीन, अम्मा बाद!

निकाह में संरक्षक की रज़ामंदी व अनुमति

निकाह के आयोजन के लिए आज तक इस्लामी और पूर्वी परम्परा भी यही रही है कि बेटियों के निकाह पिता की मौजूदगी में घरों पर आयोजित होते। दोनों परिवारों के बुज़ुर्गों की मौजूदगी में बेटियां नेक आशीर्वाद व तमन्नाओं के साथ बड़े सम्मान व इज़्ज़त के साथ घरों से विदा होतीं और माँ-बाप अल्लाह के सामने शुक्र का सज्दा करते कि जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य पूरा हो गया माँ-बाप के चेहरों पर गंभीर इत्मीनान और सन्तुष्टि की निशानियाँ मौजूद होतीं लेकिन जब से पश्चिम की कुरूप व गन्दी सभ्यता ने देश के अन्दर अपना प्रभाव जमाना आरंभ किया है तब से निकाह का एक और तरीक़ा प्रचलित होने लगा है।

लड़का-लड़की चोरी छुपे प्यार करते हैं। एक साथ मरने जीने की क़समें खाते हैं। माँ-बाप से बग़ावत करके भागने की योजना बनती है और एक-आध दिन कहीं छुपे रहने के बाद अचानक लड़का और लड़की अदालत में पहुँच जाते हैं। ग्रहण और स्वीकृति होती है और अदालत एक फ़तवे के साथ कि ‘‘संरक्षक के बिना निकाह जायज़ है’’ निकाह की डिग्री प्रदान कर देती है। माँ-बाप बेचारे अपमान व तिरस्कार का दाग़ दिल पर लिए उम्र भर के लिए मुंह छुपाए फिरते हैं इस प्रकार के अदालती निकाह को ‘‘कोर्ट मेरिज’’ कहा जाता है। यह तरीक़ा न केवल इस्लामी शिक्षाओं बल्कि पूर्वी परम्पराओं से भी खुला विद्रोह है जिसका उद्देश्य केवल यह है कि ऐसे निकाहों को इस्लामी सनद मिल जाए ताकि पश्चिम की नंगी स्वतंत्रता को देश के अन्दर थोपने में आसानी पैदा हो जाए।

निकाह के समय संरक्षक की मौजूदगी और उसकी स्वीकृति और अनुमति के बारे में क़ुरआन व हदीस के आदेश बड़े स्पष्ट हैं। क़ुरआन में जहाँ कहीं औरतों के निकाह का हुक्म आया है वहाँ सीधे तौर पर औरतों को सम्बोध करने की बजाए उनके संरक्षकों को सम्बोध किया गया है जैसे ‘‘मुसलमान औरतों के निकाह मुश्रिकों से न करो यहाँ तक कि वे ईमान ले आएं।’’ (सूरह बक़रा 221) जिसका साफ मतलब यह है कि औरत स्वयं निकाह करने की मालिक नहीं बल्कि उसके संरक्षकों को हुक्म दिया जा रहा है कि वे मुसलमान औरतों को मुश्रिक मर्दों के साथ निकाह न करें।

संरक्षक की रज़ामंदी और अनुमति के बारे में नबी सल्ल0 की कुछ हदीसें भी पढ़ लीजिए-

1. नबी करीम सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘वली (की अनुमति) के बिना निकाह नहीं।’’ (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, इब्ने माजा)
2. दूसरी हदीस में इरशाद है- ‘‘जिस औरत ने संरक्षक की अनुमति के बिना निकाह किया उसका निकाह बातिल है, उसका निकाह बालित है।’’ (मुसदन अहमद, अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, इब्ने माजा)
3. इमाम इब्ने माजा की रिवायत की हुई एक हदीस में तो शब्द इतने सख़्त हैं कि अल्लाह और उसके रसूल सल्ल0 पर सच्चा ईमान रखने वाली कोई भी मोमिन औरत संरक्षक की अनुमति के बिना निकाह की कल्पना तक नहीं कर सकती।

नबी सल्ल0 का मुबारक इरशाद है- ‘‘अपना निकाह स्वयं करने वाली तो केवल ज़ानिया है।’’

4. यहाँ सरसरी तौर पर दो बातें स्पष्ट करने योग्य हैं एक यह कि यदि किसी औरत का संरक्षक ज़ालिम हो और वह औरत के हितों की बजाए व्यक्तिगत हितों को प्रमुखता दे रहा हो तो शरअी रूप से ऐसे संरक्षक की संरक्षता आप से आप ही समाप्त हो जाती है और कोई दूसरी निकटतम रिश्तेदार औरत को संरक्षक ठहरा दिया जाता है। यदि ख़ुदा न करे पूरे परिवार में कोई भी भला चाहने वाला व्यक्ति संरक्षक बनने का हक़दार न हो तो फिर उस गांव या शहर का शासक उसका संरक्षक बनकर औरत का निकाह कर सकता है।

नबी सल्ल0 का इरशाद है- ‘‘जिसका कोई संरक्षक न हो उसका संरक्षक वहाँ का शासक है।’’ (तिर्मिज़ी)

5. दूसरे इस्लाम ने जहाँ औरत को संरक्षक की अनुमति के बिना निकाह करने से रोक दिया है वहाँ संरक्षक को भी औरत की मर्ज़ी के बिना निकाह करने से रोक दिया है। एक कुंवारी लड़की नबी सल्ल0 की सेवा में हाज़िर हुई और कहा- ‘‘उसके बाप ने उसका निकाह कर दिया है जिसे वह नापसन्द करती है।’’ नबी सल्ल0 ने उसे इख़्तियार दिया कि ‘‘चाहे तो निकाह बाक़ी रखे चाहे तो ख़त्म कर दे।’’ (अबू दाऊद, नसाई, इब्ने माजा)
6. इसी प्रकार एक व्यक्ति ने अपनी विधवा बेटी का निकाह अपनी मर्ज़ी से कर दिया तो नबी सल्ल0 ने उस निकाह को तोड़ दिया। (बुख़ारी)

इसका मतलब यह है कि निकाह में संरक्षक और औरत दोनों की रज़ामंदी एक दूसरे की पूरक है। यदि किसी कारणवश दोनों की राय में मतभेद हो तो संरक्षक को चाहिए कि वह औरत को जीवन की ऊँच-नीच से अवगत करके उसे राय बदलने पर तैयार करे। यदि ऐसा संभव न हो तो फिर संरक्षक को औरत का निकाह किसी ऐसी जगह करना चाहिए जहाँ लड़की भी राज़ी हो।

निकाह में संरक्षक और औरत दोनों की रज़ामन्दी को एक दूसरे के लिए पूरक ठहरा कर इस्लामी शरीअत ने एक ऐसा सन्तुलित और उचित रास्ता अपनाया है जिसमें किसी भी पक्ष के न तो अधिकारों का हनन होता है न ही किसी पक्ष के साथ अन्याय ही होता है।

क़ुरआन व हदीस के इन आदेशों के बाद आखि़र इस बात की कितनी गुंजाइश बाक़ी रह जाती है कि लड़की और लड़का माँ-बाप से विद्रोह करें। जवानी के जोश में घर से भाग कर अदालत में पहुंचने से पहले ही एक दूसरे की समीपता से आनन्द उठाते रहें और फिर अचानक अदालत में पहुँच कर निकाह का ड्रामा रचाएं और क़ानूनी पति पत्नी होने का दावा करें? यदि संरक्षक के बिना इस्लाम में निकाह जायज़ है तो फिर इस्लामी समाज के तौर तरीक़ों और पश्चिमी समाज के तौर तरीक़ों में फ़र्क़ ही क्या रह जाता है?

पश्चिम में औरत की यही तो ‘‘आज़ादी’’ है जिसके विनाशकारी नतीजों पर स्वयं पश्चिम का संजीदा वर्ग परेशान और बेचैन है। 1995 ई0 में अमेरिकी महिला ओल हैलरी क्लिंटन पाकिस्तान के दौरे पर आयीं तो इस्लामाबाद कालेज फ़ार गल्र्स की छात्राओं से बात करते हुए बड़ी हसरत भरे स्वर में इन विचारों को प्रकट किया कि अमेरिका में सबसे बड़ा मसला यह है कि वहां बिना शादी के छात्राएं और लड़कियां गर्भवती हो जाती हैं। इस मसले का हल केवल यह है कि सामाजिक मूल्यों से विद्रोह न करें बल्कि धार्मिक व सामाजिक परम्पराओं और उसूलों के अनुसार शादी करें और अपने माँ-बाप की इज़्ज़त और सुकून को नष्ट न करें।
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